Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 89
________________ सकता है, जो तीर्थकर की सभा के लिए दिव्य माया से निर्मित विशाल सभागार होता है; पाँचों परमेष्ठियों में जिनकी वंदना सर्वप्रथम की जाती है उनमें तीर्थंकर ही ऐसे हैं, जो अपना उपदेश केवल समवशरण में देते हैं और मूर्ति के रूप में सर्वप्रथम अंकन भी उन्हीं का हुआ और उन्हीं का तदाकार प्रतीक प्रत्येक मंदिर में मूल-नायक के स्थान पर होना अनिवार्य अनेक प्राचीन और नवीन मंदिरों के समक्ष मानस्तम्भ विद्यमान हैं जो समवशरण का ही एक भाग होता है। यही कारण है कि एक बार मदिरस्थापत्य के रूप में प्रतीकबद्ध हो चुका समवशरण किसी दूसरे लघु प्रतीक के रूप में भी प्रस्तुत नहीं किया गया। जैनधर्म में समवशरण की मान्यता असाधारण है; उसे स्तूप या ऐडूक, जारूक या जालूक और ज़िग्गुरात आदि की तरह किसी के अंतिम संस्कार के स्थान पर, या अस्थि आदि अवशेषों पर निर्मित स्मारको की श्रेणी मे रखना अनुचित होगा। 'चैत्य' शब्द का उल्लेख यदि यहाँ किया जा सके, तो उससे इस मान्यता को बल मिलेगा। आयतन और चैत्य-इन दोनो शब्दो का एक ही अर्थ है। ग्रंथो में समवशरण की जो रचना वर्णित है, वह इतनी जटिल है कि उसके प्रतीक के रूप में मंदिर को जो आकार मिला, उसमें यद्यपि उन ग्रथो के अनेक विधानों का पालन किया गया और उसका विस्तार भी यथासंभव विशाल रखा गया; तथापि उस देवगृह का नाम समवशरण नहीं बल्कि 'आयतन' या 'चैत्य' के रूप में प्रचलित हुआ। जैन मंदिरों तथा अन्य मंदिरों में समानता - इस संदर्भ में वहीं से एक अनुच्छेद और भी उदधृत किया जा रहा है: "इस मान्यता के आधार पर उद्भूत जैन मंदिर का विकास अपनी समकालीन परम्पराओं के मदिरों के साथ ही एक प्रवाह में कभी तीव्र और कमी मंद गति से होता रहा। यही कारण है कि अन्य परम्पराओं के मंदिरों के मध्य एक जैन मदिर की पहचान के लिए सूक्ष्म परीक्षा की आवश्यकता होती है, या फिर उसके लिए किसी अभिलेख या साहित्य का स्पष्ट उल्लेख, या परपरागत प्रमाण, या किसी मूर्ति का होना आवश्यक है।" जैन मूर्ति-कला का विकास भी समकालीन परंपराओं के साथ हुआ, (जन वास्तु-विधा

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