Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 55
________________ जल को शुद्ध बनाए रखती हैं और स्नान तथा पूजा के लिए उपस्थित लोगों का तन-बदन प्रफुल्लित कर देती हैं, उन्हें विटामिन 'डी' भी देती हैं। प्रकृति का सबसे बड़ा वरदान सूर्य है। उनका स्वागत करने के लिए ही मानों पूर्व या पूर्वोत्तर में सिह द्वार, प्रवेश-द्वार, अन्य द्वार तथा बहुत-सी खिड़कियाँ बनाने का विधान है। 'पूर्वोत्तर' यानी 'ऐशान' दिशा में भूमि (ग्राउंड लेवल) दक्षिण-पश्चिम की अपेक्षा नीची रखी जाए, ताकि सूर्यकिरणें अधिक-से-अधिक मात्रा में गृह प्रवेश करके वातावरण को प्रदूषण से मुक्त कर सके । वास्तव में प्रकृति का चक्र ही दक्षिणावर्त है, सूर्य का भ्रमण इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, उसी के अनुकरण पर घड़ी चलती है, बिजली का पंखा चलता है; चक्कर काटनेवाली हर चीज दक्षिणावर्त चलती है, जब तक कि कोई विशेष व्यवस्था न की गई हो। इसीलिए प्रायः सभी शुभ कार्य ऐशान दिशा में उन्मुख होकर करने से सफल होते हैं, उदाहरण के लिए चक्रवर्ती की विजय यात्रा इसी दिशा से आरंभ होती है; इष्टदेव की परिक्रमा इसी दिशा से बरास्ता दक्षिण-पूर्व, आगे बढ़ती है, इसीलिए दक्षिणावर्त परिक्रमा को प्रदक्षिणा' भी कहते हैं। दिशाओं के संबंध में व्यावहारिक नियम ऐशान की भाँति अन्य दिशाओ के सदर्भ में भी जो नियम या चेतावनी या परामर्श हैं, वे सभी या तो प्रकृति को ध्यान में रखकर हैं या लोकव्यवहार की रक्षा के लिए हैं। इसलिए उनका पालन यथासभव अवश्य किया जाए। उनके पालन से कोई हानि होती दिखे, तो उनके पालन से होने वाले लाभ और हानि की तुलना कर ली जाए और लाभ की मात्रा अधिक दिखे, तो उनका पालन किया जाता रहे । इन नियमो की व्यावहारिकता के कुछ उदाहरण आगे वर्णित हैं। घर में द्वार यथासंभव आमने-सामने हों, ताकि कड़ी (लिंटल) और छत ढालने में असुविधा से बचा जा सके। सीढियाँ या जीने का द्वार उत्तर या दक्षिण की ओर हो, तो अशुभ फल देगा: शौचालय (लेट्रिन) का द्वार पूर्व में हो, तो हानिकारक होगा इत्यादि । प्रस्तावित भूमि का ढलान (नेचरल प्रोक्लिविटीज ऑफ द ग्राउन्ड) पूर्व की ओर हो। उस भूमि पर या उसके आसपास बहनेवाली नदी की दिशा जैन वास्तु-विद्या 29

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