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प्रस्तावना
द्वादशांगी जिनवाणी में बारहवें अंग के अन्तर्गत चौदहपूर्वो में 'क्रियाविशाल' नामक एक 'पूर्व' है, जिसमें नौ करोड़ पदों द्वारा बहत्तर (72) कलाओं एवं चौंसठ (64) विद्याओं का सविस्तार-वर्णन होता है। इन्हीं कलाओं एवं विद्याओं में 'शिल्पकला' एवं 'वास्तुविद्या' के नाम से भवननिर्माण की शास्त्रीय एव मांगलिक-विधि का परिचय दिया जाता है।
युगप्रधान आचार्यप्रवर कुन्दकुन्ददेव ने प्राकृत 'श्रुत भक्ति' के छठवें पद्य में "पाणावायं किरियाविसालमथलोयबिंदुसार-सुदं" कहकर क्रियाविशाल' नामक इस अंग का उल्लेख किया है। तो आचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने संस्कृत 'श्रुतभक्ति' के तेरहवे श्लोक में 'क्रियाविशालञ्च' कहकर इसकी सूचना दी है।
'सर्वार्थसिद्धि' (1/20) नामक टीकाग्रन्थ मे चौदह पूर्वो का वर्णन करते हुये तेरहवें पूर्व के रूप मे क्रियाविशाल' नामक पूर्व का नामोल्लेख किया है। आचार्य भट्ट अकलकदेव ने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' (1/20/12), आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'धवला टीका (1/1,1,2/114 तथा 9/4, 1, 45/212), आचार्य यतिवृषभ ने 'कसायपाहड' (1/1-1/20/26) तथा आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने 'गोम्मटसार जीवकाण्ड (गा0 345-346) में उक्त आचार्यों ने भी चौदह पूर्वो का वर्णन करते हुए तेरहवे पूर्व' के रूप मे 'क्रियाविशाल' नामक पूर्व का वर्णन किया है।
क्रियाविशाल' नामक इस पूर्व' की विषय-सामग्री का परिचय देते हये आचार्य भट्ट अकलंकदेव लिखते है
"लेखादिकाः कला द्वासप्ततिः गुणाश्चतुःषष्टिस्त्रणाः शिल्पानि काव्यगुण-दोष-क्रिया-छन्दोविचितिक्रिया-फलोपभोक्तारश्च यत्र व्याख्याता: तक्रियाविशालम्।" -(राजवार्तिक)
अर्थ:-'क्रियाविशाल' नामक इस पूर्व मे “लेखनकला' आदि बहत्तर (72) कलाओ का, चौसठ विद्याओ का, शिल्पशास्त्र का, काव्य-सम्बन्धी गुण. दोष-विधि का और छन्द-निर्माण कला का विवेचन होता है।
आगम-ग्रन्थो के अनुसार इस क्रियाविशाल पूर्व मे दस 'वस्तुगत' एव दो सौ (200) प्राभृतों के माध्यम से नौ करोड पदप्रमाण द्वारा उक्त विषयो
(जैन वास्तु-विद्या