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पर्यावरण और वनस्पति-जगत्
वनस्पति से सैकड़ों रूप हैं, और सभी रूपों में वह प्रत्येक प्राणी के लिए आवश्यक है। वृक्ष को 'तर' इसलिए कहते हैं। क्योंकि उसके सहारे लोग आपदाओं को 'तरते हैं, पार करते हैं: "तरन्ति आपदम् अनेन इति तरुः।" प्राचीनकालीन कल्पवृक्षों का, दस प्रकार के इच्छापूरक वृक्षों का परिचय तो सबको होना है ही।
प्राचीनकाल में तो लकड़ी से राजमहल तक बना लिए जाते थे। संस्कृत के 'काष्ठगह से हिन्दी का कटरा' शब्द बना है, जिसका अर्थविस्तार ध्यान देने योग्य है। दूसरी ओर "काष्ठगृह' शब्द से ही निष्पन्न कठघरा' शब्द में आगत अर्थसंकोच भी विचारणीय है। आज प्लास्टिक के युग में भी लकडी का महत्त्व है। वनों, उद्यानों, गृह-सज्जा आदि के लिए पेड़-पौधों की अनिवार्यता है। मनुष्य द्वारा प्रदूषित पर्यावरण को निर्दोष बनाने का प्राकृतिक दायित्व वनस्पति-जगत् का ही है। प्रकृति के अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि प्रकोपों से मनुष्य की रक्षा वनस्पति-जगत् सदा करता रहेगा। पर्यावरण की दृष्टि से सभी वृक्ष अच्छे हैं, परन्तु वास्तुविद्या की दृष्टि से कुछ वृक्षों से परहेज करना चाहिए।
डॉ. जगदीश चंद्र बसु और उनके यंत्र 'क्रेस्कोग्राफ' को धन्यवाद, जिन्होने जैन आचार्यों का यह विधान वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाया कि 'पेड-पौधों में भी अन्य प्राणियों की तरह प्राण होते हैं।'
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(जैन वास्तु-विद्या
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