Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 41
________________ वास्तु-विद्या और पर्यावरण पर्यावरण की शुद्धता मंदिर, मकान, कारखाना, किला, कॉलोनी, नगर आदि के निर्माण में पर्यावरण की अनुकूलता परम आवश्यक है। प्रस्तावित भूमि के समीप आवागमन की सुविधा, निर्माण सामग्री और मज़दूरों कारीगरों की उपलब्धि, बाज़ार, मनोरंजन के साधन, शिक्षा-संस्थाएँ आदि तो होनी ही चाहिए; ऐसा समाज भी होना चाहिए, जिससे उस निर्माण के उद्देश्य में बाधा नहीं पड़े, बल्कि सहायता मिले। प्रस्तावित भूमि के आसपास प्रकृति का बाढ़ आदि के रूप में प्रकोप न होता हो, प्राकृतिक छटा बिखरी हो तो और भी अच्छी बात होगी। पर्यावरण की अनुकूलता के भी चार बिन्दु है: दव्य, क्षेत्र, काल और भाव। "द्रव्य' का अर्थ है निर्माण-कार्य में लगनेवाला धन, सामग्री, कारीगर आदि। 'क्षेत्र' का मतलब है वह भूमि और उसका पर्यावरण, जहाँ निर्माण होना है। 'काल' का तात्पर्य मौसम से तो है ही, सामाजिक वातावरण, राजनीतिक परिस्थितियों आदि से भी है। 'भाव' का मतलब है निर्माता और उसके सहयोगियो के आचार-विचार। इन चारों का प्रभाव भौतिक तो होता ही है, आध्यात्मिक भी होता है। इनमें से किसी एक के भी प्रदूषित या नियम-विरुद्ध होने पर उस निर्माण से संबंध रखनेवालों को आए दिन कोई-न-कोई कष्ट होता रहता है। यह कष्ट शारीरिक भी हो सकता है और मानसिक भी, अस्थायी भी और स्थायी भी। यह कष्ट तभी दूर होगा, जब उसे पैदा करने वाले प्रदूषण या नियमविरोध का निवारण दिया जाए। उचित यही होगा कि निर्माण के पहले ही पर्यावरण की शुद्धता पर ध्यान दिया जाए। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश प्रदूषण-रहित पर्यावरण और समशीतोष्ण जलवायु की प्राप्ति प्रकृति से तो हो ही है; उसे मनुष्य अपने प्रयत्न से भी प्राप्त कर सकता है। यह

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