Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 21
________________ अशुभ का तथा उसके (शुभाशुभ के) कारणों का वर्णन करती है। अन्यत्र कोशग्रन्थों में भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुये कहा गया है कि "वास्तुनो गृह-भूमेर्विद्या वास्तुविद्या । वास्तुशास्त्रप्रसिद्धे गुण-दोषविज्ञानरूपे कलामेदे ।" - ( अभिधान राजेन्द्रकोश, षष्ठ भाग, पृ० 880) अर्थः- 'वास्तु' अर्थात् भवन और भूमि-दोनों से सम्बन्ध रखनेवाली विद्या 'वास्तुविद्या' है। इसमें वास्तुशास्त्र के अनुसार वास्तु के गुणों और दोषों का विशेषज्ञान कराया जाता है। यह बहत्तर कलाओं का एक भेद मानी गयी है। ' हलायुधकोश' में भी कहा गया है कि "वास्तुं संक्षेपतो वक्ष्ये गृहादौ विघ्ननाशनम् ।" (पृष्ठ 606) अर्थात् संक्षेपतः 'वास्तुविद्या' का अर्थ घर आदि में विघ्नों का निवारण करनेवाली विद्या या कला-विशेष ही 'वास्तुविद्या' है। जैनग्रन्थों में मूलतः वास्तुशास्त्रीय नियम-उपनियमो का निर्माण 'जिनमंदिर' की दृष्टि से हुआ है, जिसे नवदेवताओं मे परिगणित किया गया है तथा जिसके लिये चैत्यालय, चैत्यगृह आदि संज्ञाओ का प्रयोग भी प्राप्त होता है । 'प्रतिष्ठासारोद्धार' (पद्य 10) में स्पष्टरूप से कहा गया है कि"जैनं चैत्यालयं चैत्यमुत निर्मापयन् शुभम् । वाञ्छन् स्वस्य नृपादेश्च, वास्तुशास्त्रं न लंघयेत् । ।" अर्थ:-अपना एव राजा आदि का भला चाहनेवाले व्यक्तियों को जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा एवं उनके अन्य उपकरणों आदि का निर्माण करते समय वास्तुशास्त्र की मर्यादाओं का उल्लघन नहीं करना चाहिये। अर्थात् जिनमदिर आदि का निर्माण वास्तुशास्त्रीय नियमों के अनुरूप ही कराना चाहिये । चूकि गृहस्थजन 'घर' मे रहते हैं; अतः उनकी सद्बुद्धि रहे, धर्मकार्यों मे रुचि प्रवृत्ति रहे, बाह्य अनुकूलता भी रहे (ताकि परिणाम न बिगड़ें) साथ ही उनका स्वयं का, उनके परिजनों का, ग्राम-नगर- राष्ट्र आदि का भी भला हो - इस दृष्टिकोण से घर-मकान आदि सांसारिक प्रयोजन से निर्मित भवनो को भी वास्तुशास्त्र के अनुसार बनवाने की प्रेरणा दी गयी है। सद् गृहस्थ को 'सागार' या 'गृहवासी' कहा गया है, फिर भी उसे धर्मात्मा माना गया है । "भरतजी घर ही में वैरागी" जैसे वाक्यों में भी घर में रहकर भी जैन वास्तु-विद्या XII

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