Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 30
________________ वास्तु-निवेश और नगर-निवेश। कालान्तर में वास्तु-विद्या एक स्वतंत्र विषय बन गई, तब भी ये छहों रूप कलाओ में सम्मिलित बने रहे। विद्याओं और कलाओं में कई दृष्टियों से समानता है; दोनों की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती है, जिसका एक नाम है 'ब्राह्मी । तीर्थकर ऋषभनाथ की ज्येष्ठ पुत्री का नाम भी ब्राही था; उसने लिपि-विद्या का प्रवर्तन किया था। उस सरस्वती और इस ब्राह्मी में और भी कई बातों में एकरूपता है। अतः कहा जा सकता है कि “वास्तु-विद्या का प्रवर्तन ब्राह्मी से हुआ था।" वास्तु-विद्या : अतीत पर विहंगम दृष्टि मनुष्य की तीन मौलिक आवश्यकताएँ हैं: रोटी, कपड़ा और मकान। -यह कथन इतिहास, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान की दृष्टि से है। मनोविज्ञान की दृष्टि से पांचवीं शताब्दी में आचार्य पूज्यपाद ने 'इष्टोपदेश'10 में लिखा थाः "जो जहाँ रह रहा हो, वह वहीं रम जाता है; वह जहाँ रम जाता है, वहाँ से कहीं और नहीं जाना चाहता।" उनसे भी पूर्व प्रथम शती ई० मे आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार' मे दान के जो चार प्रकार बताए थे," उनमे एक आवास भी है; यह धार्मिक दृष्टि है। प्राकृतिक गुफाओ को काट-छाँटकर वनवासी साधुओं के रहने योग्य बनाने की परम्परा इसीलिए चली। दक्षिण भारत मे, विशेषतः कर्णाटक में मंदिरो के साथ मुनि-वास' बनाने की प्रथा आज भी है; इसीलिए वहाँ मदिर को बसदि (वसति) कहते हैं। ___ आवास के धार्मिक महत्त्व से मदिर-स्थापत्य का विकास हुआ होगा। दसवीं शताब्दी में आचार्य वीरसेन ने 'षट्खण्डागम' की अपनी 'धवला' नामक टीका12 मे संकेत किया था कि "वास्तु-विद्या मे भूमि के सन्दर्भ में शुभाशुभ फलों का विधान होता है। पौराणिक आख्यानों से स्थापत्य के आकार-प्रकार में विविधता आई। इसमें सहायता की लोक-विद्या' (कॉस्मोलॉजी) ने, जिसमें मध्यलोक, नन्दीश्वर द्वीप, ढाई-द्वीप, जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र, विदेह क्षेत्र, मेरु पर्वत आदि की अद्भुत-अपूर्व रचनाओं के विस्तृत वर्णन हैं। इन सभी कारणों से भारतीय वास्तुविद्या इतनी व्यावहारिक और वैज्ञानिक बन गयी कि उसका प्रचार वृहत्तर भारत में, विशेषतः दक्षिणपूर्व एशिया में भी हुआ। स्वय भारत में विदेशी शासकों ने इसका प्रत्यक्ष या

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