Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 36
________________ वास्तु-विद्या पर उपलब्ध साहित्य वास्तु-विद्या पर वैदिक साहित्य वास्तु-विद्या पर सर्वप्रथम 'अथर्ववेद' में प्रकाश डाला गया। फिर पुराण, ज्योतिष, प्रतिष्ठा आदि के ग्रंथों में भी इस विषय को प्रसगानुकूल स्थान दिया गया । 'डिक्शनरी ऑफ हिंदू आर्किटेक्चर' मे डॉ. प्रसन्न कुमार आचार्य ने वास्तु-विद्या पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रकाश डालनेवाले लगभग दो सौ सात ग्रंथो के नाम सकलित किए है; उनमे अनेक जैन-ग्रंथ भी हैं। शैली की दृष्टि से ये ग्रथ दक्षिणी और उत्तरी परम्पराओ में रखे जाते हैं। दक्षिणी परम्परा के मुख्य ग्रंथ हैं: शैवागम, वैष्णव पंचरात्र, अत्रिसहिता, वैखानसागम, दीप्ति-तन्त्र तत्र समुच्चय आदि। उत्तरी परम्परा के प्रमुख है: मत्स्य पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, बृहत् संहिता (ज्योतिष ग्रंथ); किरण-तत्र, हयशीर्ष - पचरात्र, विष्णुधर्मोत्तर पुराण (चित्र कला के लिए विशेष), और हेमाद्रि, रघुनंदन आदि के प्रतिष्ठा ग्रथ । वास्तु-विद्या पर स्वतत्ररूप से लिखे गए वैदिक ग्रंथों में विशेष उल्लेखनीय हैं: विश्वकर्मा का शिल्प- शास्त्र, मय-मत, मानसार, काश्यप-शिल्प (अंशुमद्-भेद ), अगस्त्यसकलाधिकार, सनत्कुमार-वास्तुशास्त्र, शिल्पसग्रह, शिल्परत्न, चित्र- लक्षण दक्षिणी परपरा मे; और विश्वकर्म-प्रकाश, समरागण सूत्रधार-मंडन, वास्तुरत्नावली, वास्तु-प्रदीप आदि । करणानुयोग के ग्रंथों में वास्तु-विद्या जैनपुराणो तथा करणानुयोग के प्रायः सभी ग्रथों से वास्तु-विद्या और शिल्पशास्त्र पर विशद प्रकाश पड़ता है। त्रिलोकी, मध्यलोक, जम्बूद्वीप, मेरु, समवसरण आदि की रचना पर सहस्रो गाथाएँ और श्लोक हैं। प्रतीत होता है कि उन रचनाओं से विशाल राज-प्रासाद, भव्य जिनालय आदि के रूप-निर्धारण में प्रेरणा ली गई थी। जिनालय तो स्पष्टरूप से समवसरण का लघुरूप होता है। नन्दीश्वरद्वीप की रचना आज भी आष्टानिक (अठाई) पर्वों पर की जाती है। जैन वास्तु-विद्या 1080

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