Book Title: Jain Vastu Vidya
Author(s): Gopilal Amar
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 23
________________ लगाये जाते हैं, उन्हें तोरण' कहा गया है। इन दो उल्लेखों से स्पष्ट है कि जिनमंदिर आदि भवनों के चारों ओर परकोटा होना चाहिये, तथा इनके द्वारा पर मंगलस्वरूप 'तोरण एवं 'वंदनवार आदि की व्यवस्था होनी चाहिये। ध्यातव्य है कि ये सभी वास्तुशास्त्रीय दृष्टिसे शुभकारक वस्तुयें मानी गयीं हैं। __ वास्तुविद्या के इतने व्यापक महत्त्व एवं लोकोपयोगित्व को दृष्टिगत रखते हुये पंडितप्रवर आशाधरसूरि ने प्रतिष्ठाचार्य को अनेक विषयों के साथ 'वास्तुशास्त्र का विशेषज्ञ होना भी अनिवार्य बतलाया है "भावकाध्ययन-ज्योति-वास्तुशास्त्र-पुराणवित्।" अर्थ:-(प्रतिष्ठाचार्य को) श्रावकाचार, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र और पुराणग्रन्थों का जानकार (विशेषज्ञ) होना चाहिये। आचार्य भद्रबाहुकृत 'भद्रबाहुसंहिता' में तो वास्तुशास्त्र' के ज्ञान को ज्योतिष से भी महनीय प्रतिपादित किया है "ज्योति केवलं कालं, वास्तु-विष्येन्द्रसम्पदा" अर्थ:-ज्योतिष शास्त्र तो मात्र काल-सम्बन्धी ही कथन करता है, किन्तु वास्तुशास्त्र के अनुपालन) से इन्द्र-सदृश दिव्य सुख-साधन प्राप्त होते हैं। (यद्यपि जैनदृष्टि से यह कथन उपरिदृष्ट्या बहुत संगत प्रतीत नहीं होता है; तथापि जिस भवन मे बाह्य विघ्न-बाधा के बिना शातभाव से रहने को मिले, तो इस दुःखमय ससार में - गृहस्थ जीवन में संसारी प्राणी को इससे श्रेष्ठ बाह्य-सम्पदा अन्य कौन-सी हो सकती है? -इस अभिप्राय से यह सुसंगत प्रतीत होता है। वास्तुशास्त्र के सम्बन्ध में प्रख्यात विद्वान स्व० डॉ० नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य के विचार मननीय हैं-"वास (निवास) स्थान को वास्तु कहते हैं। वास' करने से पूर्व वास्तु' का शुभाशुभ स्थिर करके वास करना होता है। लक्षणादि के द्वारा इस बात का निर्णय करना होता है कि कौनसी वास्तु शुभकारक है तथा कौन-सी अशुभकारक है।" (भद्रबाहु संहिता, पृष्ठ 4) जैनवास्तु-शास्त्र में 'ईशान दिशा' (उत्तरपूर्व) का अत्यधिक महत्त्व गया है। पं० आशाधर सूरि लिखते हैं(जन वास्तु-विष्ण XIV

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