Book Title: Jain Tattva Sara
Author(s): Kanhiyalal Lodha
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 16
________________ सहज रूप में सेवा होती रहती है। प्रवृत्ति रूप साधना में बड़ी सावधानी की आवश्यकता होती है। यदि सेवा रूप प्रवृत्ति से साधक सम्मान, पुरस्कार आदि के सुख का भोग करने लग जाता है तो वह सेवा, सेवा नहीं रह जाती है, सौदे का रूप ले लेती है। उससे भौतिक उपलब्धि तो होती है, परन्तु वह कल्याणकारी नहीं होती है। स्मरण रहे कि सेवा में जितने अंश में अपने सुख का त्याग है वह सेवा उतनी ही कल्याणकारी है। साधक के लिए सेवा रूप प्रवृत्ति में रहा हुआ त्याग ही उपादेय है। यही त्यागमय प्रवृत्ति आत्मा को पवित्र करने वाली है, यही पुण्य है। मैत्री, प्रमोद, करुणा, अनुकम्पा, वात्सल्य का क्रियात्मक रूप ही प्रवृत्तिपरक साधना है। वह राग गलाने वाली होने से साधक के लिए आदरणीय है। समभाव-साधना त्याग (विरति) में समभाव निहित है, अतः समस्त साधनाओं का आधार या सार समभाव है। समभाव है अनुकूलता में राग न करना, प्रतिकूलता में द्वेष न करना अर्थात् राग-द्वेष रहित होना । अतः समभाव में वीतराग भाव समाया हुआ है। समभाव की साधना वीतराग भाव की साधना है। समभाव में अपने सुख-दु:ख के भोग का त्यागभाव समाहित है। जहाँ त्याग है वहाँ समभाव है। जहाँ समभाव है वहाँ त्याग है। जहाँ भोग है वहीं रोग है वहाँ त्याग नहीं है, समभाव नहीं है। समभाव की साधना को जैन दर्शन में सामायिक की साधना कहा है। इसीलिए साधक को 'करेमि भंते! सामाइयं' की ही प्रतिज्ञा दिलाई जाती है, भले ही वह साधक आजीवन के लिये साधना ग्रहण करे अथवा कुछ काल के लिये। उसे सामायिक अंगीकार करनी ही होती है। समभाव में संयम और संयम में समभाव समाहित है। जहाँ असंयम है वहाँ विषयभाव व विषमभाव है। विषयभाव विष है, प्राण घातक है, यही कारण है कि विषमभाव से, विषयभाव से, असंयम से, भोग से प्राणी की अपनी प्राणशक्ति का घात, ह्रास होता ही है, अर्थात् प्राणातिपात होता है, हिंसा होती जैन धर्म में मुक्ति प्राप्ति की साधना का मूलाधर सम्यग्दर्शन है (सत्य का साक्षात्कार करना है)। सम्यग्दर्शन की अनुभूति में श्रुतज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा श्रुतज्ञान का आदर करना, श्रुतज्ञान का आचरण करना चारित्र है। सम्यक्श्रुत ही सम्यग्ज्ञान है। इस ज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञान पर आस्था, विश्वास, श्रद्धा न करना, इसी ज्ञान को लक्ष्य व साध्य-साधना बनाना सम्यग्दर्शन है। जैनतत्त्व सार [XV]

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