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प्रधान सम्पादकीय
मूलस्रोत धार्मिक है । इन मे हमे जो चिन्तन और विचार प्राप्त होता है वह है संसार की असारता और क्षणभंगुरता, पारलौकिक हित की आकाक्षा तथा समाज में धर्म का प्रचार । ये लेख समाज के उस वर्ग का विवरण प्रस्तुत करते हैं जो अपने सासारिक सुख-साधनों का परित्याग कर समाज में महिंसा व शान्ति की भावना बढाने तथा अपने सुख से ऊपर दूसरो के दुःखो का निवारण करने की श्रेयस्कर भावना और सुसंस्कार के प्रचार हेतु अपने जीवन को लगा देते थे । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनेक शिलालेखो में उन के उत्कीर्ण किये जाने का काल भी निर्दिष्ट है । इस से are ग्रन्थकार मुनियो के काल निर्णय में व साहित्य में पायी जाने वाली पट्टावलियो के संशोधन में सहायता मिलती है । आनुषंगिक उल्लेखो से अनेक राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों की भी विशेष जानकारी प्राप्त हो जाती है । हमें पूर्ण आशा है कि इन शिलालेख संग्रहो से जैन साहित्य और इतिहास के शोधकार्य में बडी सहायता मिल सकेगी ।
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डॉ० जोहरापुरकर ने लेख संग्रह के अतिरिक्त इन लेखो का अध्ययन कर के नाना दृष्टियों से उन का विश्लेषण जैसा चौथे भाग की प्रस्तावना मे किया था वैसा तथा उस से भी अधिक जानकारी- पूर्ण विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ की २१ पृष्ठीय प्रस्तावना में भी किया है। उन के इस सहयोग के लिए हम उनके बहुत कृतज्ञ हैं । इस ग्रन्थमाला को अपने संरक्षण में लेकर उस की सम्पुष्टि में अपनी पूर्ण तत्परता रखने हेतु हम ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री शान्तिप्रसादजी, श्रीमती रमाजी तथा ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्रजी के भी बहुत अनुगृहीत है ।
बालाघाट
मैसूर
हीरालाल जैन आ. ने, उपाध्ये
प्रधान सम्पादक