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जैन-शिलालेख-संग्रह
मुत्तुप्पट्टि ( मदुरै, मद्रास) लिपि-सन्पूर्व पहली सदी की, तमिल-ब्राह्मी इस ग्राम के समीप की पहाडी पर जिनमूर्तियुक्त गुहा के बाजू मे यह लेख है
नार्प ऊर् (चे) (य) (चे आ) चा (शा) न् यह सभवत गुहा निर्माता का उल्लेख है।
रि० १० ए० १६६३-६४,शि० क्र० बी २८३
विदिशा ( मध्यप्रदेश) चौथी सदी ( सन् ३०५ के लगभग ), ब्राह्मा-संस्कृत
विदिशा नगर के समीप बेस नदी के तट पर एक टीले की खुदाई मे तीन तीर्थकर-मूर्तियां मिली जो श्री राजमल मडवैया के प्रयत्न से सुरक्षित रूप से विदिशा के शासकीय सग्रहालय मे रखी गयी है। इन के पादपीठो पर लेख है । एक लेख पूर्णत. नष्ट हुआ है, दूसरा आधा टूटा है और तीसरा पूर्ण है। एक मूर्ति पर तीर्थकर चन्द्रप्रभ का और एक पर तीर्थकर पुष्पदन्त का नाम अकित है । इन की चरण चौकियो पर सिंह अकित है। सिर के पीछे प्रभामण्डल है। शिल्प विन्यास की शैली कुषाण काल और उत्तर-गुप्त काल के बीच की है । लेखो के अनुसार मूर्तियो का निर्माण महाराजाधिराज श्री रामगुप्त के शासनकाल में ( सन् ३७५ के लगभग ) हुआ था। उपरिलिखित विवरण दैनिक नई दुनिया, जबलपुर के २३-२. ६९ के अंक में प्रकाशित डॉ. कृष्णदत्त बाजपेयी के लेख में दिया गया है।