Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha 05
Author(s): Vidyadhar Johrapurkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 35
________________ बजारमा ५. उत्तरा मोसिनी नदी ॥ क्या पंचमा बाणवावशान्तर्गतचंदुहाणमामः तस्मात् पूर्व: भग्ग1 वळियागप्रामः दक्षिणा अमिवारा मदी। पश्चिमः कगनाण प्रामः उत्तरः बहारग्रामः । ६२ तथा षष्ठः उलटलचतुग्विशत्यन्तर्गतदिवारग्रामः ॥ तस्मात् पूर्वः पिप्पलवग्राम. दक्षिणः सीहमा२६ मा परिच [श्चि] मः वडालीखत्रा उत्तरतः मोराग्रामः ॥ एवं यवा [था] वस्थितचतुराधाटोपलक्षितग्रामषट्कसहिता ६४ पूर्वमर्यादया भुक्तभुज्यमाना यथावस्थितचतुराघाटोपलक्षिता सा वसतिद्रविडसंघविशेषवीर६५ गणवोर्णाल्यान्वयपर्यशिष्याय वर्द्धमानगुरवे समर्पिता ॥ अयं चास्मद्धर्मदायः समागामिमि पति१६ तिमिरस्मद् [४] स्यै [श्यै] रन्यैश्वानुमन्तव्यः ॥ यश्चाज्ञानतिमिर पटलावृतमतिराच्छिन्द्याच्छिद्यमानं वा कदा६७ चिदनुमा [मो] दते स पचमिर्महापातकैरुपपातकैश्च लिप्यते ।। उक्तं च भगवता व्यासेन । षष्टिं वर्षसहना६८ णि स्वर्गे वसति भूमिद [6] आच्छेत्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत् ॥ [२२] अत्रैव रामश्लोकार्थ ॥ राजशेखरक[क]ता प्रशस्तिरियं ॥ इन ताम्रपत्रों मे दानदाता इन्द्रराज ( तृतीय ) की प्रशस्ति पूर्वोल्लिखित प्रथम ताम्रपत्र के अनुसार ही है । द्रविडसंघ-विशेष वीरगण-वोर्णाय्य अन्वय के वर्षमान गुरु-जिन्हे ये ताम्रपत्र दिये गये थे वे भी संभवतः पूर्वोक्त लेख में वर्णित वर्धमान गुरु ही है यद्यपि यहाँ उन के गुरु का नाम नही दिया है। इन्हें कहाण ( वर्तमान उत्राण जि. नासिक), पन्नउर ( वर्तमान धानरी जि. नासिक), तुंगोणी ( वर्तमान तुंगण जि. नासिक),

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