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जैन - शिलालेख संग्रह
रण है। इन में नौवी सदी से पन्द्रहवी सदी तक के २० लेख हैं । शेष लेखो का समय अनिश्चित हैं ।
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इनके अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्य कुछ स्थानो का आगे यथास्थान उल्लेख किया है ।
२. लेखो से ज्ञात जैन साधुसघ का स्वरूप
इस सकलन के नौवी शताब्दी तक के लेखो मे ( तथा बाद के भी बहुत से लेखो में ) वर्णित जैन मुनियो के विषय मे यह ज्ञात नही होता कि वे माधुसंघ की किस शाखा के सदस्य थे । लगभग ८० लेखो मे साधुसंघ के भेद-प्रभेदो के नाम मिलते हैं । इन का विवरण आगे दिया जाता है ।
(अ) द्राविड संघ - सन् ९१५ के वजीरखेड ताम्रपत्रो मे (ले० १४१५ ) इस संघ के विशेषवीरगण वोर्णाय्य अन्वय के लोकभद्र के शिष्य वर्धमानगुरु को मिले हुए ग्रामदान का वर्णन है । चन्द्रनापुरी की अमोघ - वसति तथा वडनेर की उरिअम्मवसति की देखभाल उन के द्वारा होती थी । यह लेख द्राविड सघ के अब तक मिले हुए सब उल्लेखो मे प्राचीनतम है ( पिछले सग्रह मे प्राचीनतम लेख भाग २ का क्र० १६६ सन् ९९० के आसपास का है ) तथा इस मे वर्णित वीरगण-वोर्णाय्य अन्वय का अन्य किसी लेख में उल्लेख नही मिला था ( पिछले संग्रह मे उल्लिखित इस सघ का एकमात्र प्रभेद नन्दिगण - अरुगल अन्वय है ) । मैसूर प्रदेश के बाहर मिला हुआ द्राविड सघ का यह पहला व एकमात्र उल्लेख है । सन् १०८७ के पदूर के लेख ( क्र० ५६ ) मे इस संघ के पल्लवजिनालय के कनकसेन आचार्य को मिले हुए भूमिदान का वर्णन है । सन् १९६७ के उज्जिलि के लेख ( क्र० १०४ ) मे द्राविड सघ सेनगण - कीरूर गच्छ के इन्द्रसेन आचार्य को मिले हुए भूमिदान का वर्णन है । इस सघ के साथ सेनगण का सम्बन्ध पहले ज्ञात नही था ( पिछले सग्रह मे तथा इस संग्रह के भी कुछ लेखो मे सेनगण मूलसघ के अन्तर्गत बताया गया है, कौरूर गच्छ का
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