Book Title: Jain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir

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Page 77
________________ सेवा मूर्ति नंदिषेण • १०८ धर्म थान शासन (अपाडs) विशेषis • u४-११-२००८, भंगार वर्ष - २१.is-1 मात नंदिषेण मगध के नंदि गाँव में सोमील नामक ब्राह्मण रहता आजीवन छछ, पारणे से आंयबिल और लघु, वृद्धया रोगवाले था। उसकी सोमीला नामक स्त्रीथी। उन्हे नंदिषेण नामक पुत्र साधुओं की सेवा (वैयावच्च) करने के बाद ही भोजन करने का था। दुर्भाव से वह कुरुप था । बचपन में माता-पिता की मृत्यु अभिग्रह लिया, और इस प्रकार वे नित्य वैयावच्च करने लगे। हो गई, वह मामा के वहां जाकर रहता था । वहाँ वह चारा नंदिषेण की इस उत्तम वैयावच्च को अवधिज्ञान से पानी वगैरह लाने का काम करता था। मामा की सात पुत्रियाँ जानकर इन्द्र ने अपनी सभा मे कहा, 'नंदिषेण जैसा वैयावच्च थी । 'सात में से एक का ब्याह तेरे साथ में निश्चल अन्य कोई मनुष्य नहीं हैं। एक देव ने करूंगा'- एसा मामा ने नंदिषेण को कहा, यह बात न मानी, नंदिषेण की परीक्षा करने का जिससे वह घर का काम करने लगा । एक के विचार किया और एक रोगी साधू का रूप लिया बाद एक सातों बेटियों ने करूप नंदिषेण से सवा एवं अतिसारयुक्त देह बनाई और अन्य साधू शादि करने का इनकार कर दिया और कहा, का रूप लेकर नंदिषेण जहाँ ठहरे थे उस 'जोर-जुल्म से नंदिषेण से शादी करवाओगे उपाश्रय पर पहुँचे । वहाँ नंदिषेण भिक्षा लेकर तो मैं आत्महत्य करके मर जाऊंगी,'- ऐसा इर्यापथिकी प्रतिक्रमी, पच्चक्खाण पालकर हरेक पुत्रीने कह । इससे यहाँ रहना ठीक नहीं गोचरी (आहार) लेने बैठे । उस समय साधू के है, ऐसा मानकर खेद व्यक्त करने लगा कि मेरे रुपवाले देव ने कहा : 'आपने साधू की दुर्भाग्य से मेरे कर्मों का उदय हुआ है, इस वैयावच्च करनेका नियम किया है, फिर भी प्रकार के जीवन जीने से मर जाना बेहतर है । सोच विचार आप ऐसा करे बिना अन्न क्यों ले रहे हो?' नंदिषेण के पूछने करके वह मामा का घर छोड़कर रत्नपुर नामक नगर में गया। पर उसने बताया कि 'नगर के बाहर एक रोगी साधू है। उसे वहाँ स्त्री-पुरुष को भोग भुगतते हुए देखकर अपनी निंदा शुद्ध जल चाहिए।' यह सुनकर शुद्ध जल लेने के लिए नंदिषेण करते हुए कहने लगा, 'अहो! मैं कब एसा भाग्यवान बनूंगा?' श्रावक के घर गये । जहाँ जहाँ वे जाते वहाँ वह देव-साधूजल वह बन में जाकर आत्महत्या करने का विचार करने लगा। वहाँ को अशुद्ध कर देते थे। बहुत ही भटकने बाद अपनीलब्धी के कायोत्सर्ग करते हुए मुनिने उसको अटकाया । उनको प्रणाम प्रताप से ज्यों त्यों शुद्ध जल प्राप्त करके उस देव-साधू के करके नंदिषेण ने अपने दुःख की सब कहानी मुनि को सुनाई। साथ नंदिषेण नगर से बाहर रोगी साधू के पास गये । उन्हें मनि ने ज्ञान से उसका भाव जानकर कहा, 'हे | अतिसार से पीडित देखकर, 'उनकी वैयावच्च से मैं कृतार्थ मुग्ध ! ऐसा जुठा वैराग्य मत ला। मृत्यु से कोई भी मनुष्य करे हो जाऊंगा।' एसा मानकर उन्हें जल से साफ किया लेकिन हुए कर्मों से छूटता नहीं है । शुभ अथवा अशुभ जो कुछ कर्म | ज्यों ज्यों साफ करते जा रहे थे त्यों त्यों बहुत ही दुर्गंध किये हो वह भुगतने ही पड़ते है। श्री वीतराग परमात्मा भी धर्म | निकलने लगी। इससे वे सोचने लगे, 'अहो ! ऐसे भाग्यवान से ही अपने पूर्व के पापकर्मो से छूटते है । इसलिए तू . साधू फिर भी ऐसे रोगवाले हैं, राजा या रंक, यति या इन्द्र आजीवन शुद्ध धर्म ग्रहण कर जिससे तू अगले भव . . कोई भी कर्म से छूटता नहीं है। वे साधू को कंधो पर में सुखी हो पायेगा।' बिठाकर पौषधशाला में ले जाने के लिये चल पडे ऐसे उपदेश से वैराग्य पाकर, नंदिषेण ।रास्ते में ये देव-साधूनंदिषेण पर मलमूत्र करते ने गुरु से दीक्षा व्रत ग्रहण किया और विनयपूर्वक त है, इसकी बहुत ही दुर्गंध आने पर भी बुरा नहीं मानते अध्ययन करने लगा और धर्मशास्त्र में गीतार्थ बने । उन्होंने हैं । वे धीमे चलते हैं तो कहते है, 'तू मुझे कब पहुँचायेगा?

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