Book Title: Jain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
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चंदनबाला
.१०८ धर्म थान शासन (BISs) विशेषis
४-११-२००८, भंगार
वर्ष-२१ .i-1
पदनवाला
उतने में धनावह सेठ घर पर आये। उस समय चंदनबाला सेठ
तहखाने में पड़ी हुई चन्दनबाला सोचती है कि मेरे पिता को आसन पर बिठाकर विनयपूर्वक उनके चरण धोने कर्म ही ऐसे है। नगर में से सैनिक ने मुझे पकड़ा। मार्ग में माता लगी। उस वक्त मूला शेठानी घर पर आ गई। चंदनबाला के की मृत्यु हुई। जानवर की तरह बाजार मे बिकना पड़ा लेकिन केशो की चोटी भूमि को छू रही थी तो सेठ ने उसे ऊंचे उठा कुछ अच्छे भाग्य से वेश्या के यहाँ से बिकने से बची। अब अंधेरे रखा था। चंदनबाला को सेठ के चरण धोते देखकर सेठानी में भुखे - प्यासे रहना है। 'हे वीतराग ! तेरी शरण है, यहाँ
एकांत है, धर्मध्यान करुंगी'-ऐसा सोचते हुए वह नवकार मंत्र का जप करती रहती है। इस प्रकार तीन दिन बीत गये। उसके कई कर्मो का नाश हो चुका था।
धनावह श्रेष्ठी बाहरगाँव से लौटे । उन्होंने चन्दनबाला को देखा नहीं । जिससे उन्होने पत्नी को पूछा, 'चन्दनबाला कहाँ गई है ?' तब सेठानी ने कहा, 'वह तो लड़को के साथ घूमती-फिरती है । इस प्रकार सच बात छुपायी । एक वृद्ध दासी ने सेठ को चुपके से आकर मूला तथा चन्दनबाला की सब हकीकत बतायी और दिखाया कि चन्दनबाला को कहाँ रखा गया है। धनावह सेठने स्वयं जाकर द्वार खोला । धनावह ने बंधी हुई, सर मुण्डित और अश्रुभरी
आँखोवाली चन्दनबाला को देखा और ढाढ़स बंधाकर उसे स्वस्थ होने को कहा । उसे भूख से तृप्त करने के लिये रसोईघर में पके हुए उडद जाकर दिये और उसकी बेडी खोल सके ऐसे लुहार को लेने चल दिये।
चन्दनबाला सोचती है, 'कैसे कैसे नाटक मेरे जीवन में आये' मैं राजकुमारी - किन संयोगो से बजार में बिकी - कर्मयोग से कुलवान सेठ ने खरीदा। कैदी की भाँति बेडीयों के
साथ तहखाने में कैद हुई-तीन दिन के उपवास हुए । अब सोचने लगी कि सेठ किसी भी समय इसे अपनी स्त्री बना लेगा
पारणा हो सकता है पर कोई तपस्वी आये और अठ्ठमकेपारणे और मुझे निकाल देगा या विष देकर मार डालेगा। इसीलीए
पर उसे भोजन भिक्षा देकर व्रत खोलूं तो आत्मा को आनंद विषबेल कोपनपने से पहले ही काट देनाचाहिये।
.होगा। कोई अतिथि आये, उसे देने के पश्चात ही मैं भोजन धनावह सेठ एक बार बाहरगाँव गये थे।. ५. करुंगी, अन्यथाखाऊंगा ही नहीं।' उस समय मूला सेठानी ने चन्दनबाला का सरर
. यों विचार कर रही है, उतने में भिक्षा के मुंडवा डाला और पैर मे बेड़ी डालकर उसे तहखाने
के लिए घूमते घूमते श्री वीर भगवान वहाँ आ पहुँचे। मे छोड़कर ताला लगा दिया । वह अपने मन से संतोष
- उनका अभिग्रह था कि यदि कोई स्त्री चौखट पर बैठी मानने लगी, और सोचती रही कि सौतन को मारने में दोष | हो; उसका एक पैर घर के अन्दर और एक पैर घर के बाहर कैसा?
। हो,जन्म से वह राजपुत्री हो पर दासत्व पाया हो, पाँव में बड़ी
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