Book Title: Jain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
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प्रतिभूति सिद्धसेन......
श्रीन शासन (16वाडिs) + वर्ष : २१ + is - 341. 30-१०-२००८
प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन दिवाकर - पं. सुखलाल संघवी
___ मैं ऐसे विद्वान को भी नहीं जानता कि जिस | अवेले ने एक बतीसी में प्राचीन सब उपनिषदो तथा गीता का सार वैदिक और औपनिषद भाषा में ही शाब्दिक और आर्थिक अलङकार युक्त चमत्कारिणी सरणी से वर्णित किया हो। जैन परम्परा मैं तो सिद्धसेन के पहले और पीछे आज तक ऐसा कोई विद्वान हुआ ही नहीं है जो इतना गहहा उपनिषदो का अभ्यासी रहा हो और औपनिषद भाषा मैं ही औपनिषद तत्त्व का वर्णन भी कर सके। पर जिस परम्परा मैं सदा एक मात्र उपनिषदो की तथा गीता की प्रतिष्ठा है उस वेदान्त परम्परा के विद्वान भी यदि सिद्धसेन की उक्त बत्तीसी को देखेंगे तब उनकी प्रतिभा के कामल होकर यही कह उठेंगे कि आज तक यह ग्रन्थ रत्न द्रस्टेिपथ मैं आने से क्यो रह गया। मेरा विश्वास है कि प्रस्तुत बत्तीसी की और किसी भी तीक्ष्ण-प्रज्ञ वैदिक विहान का ध्यान जाता तो वह उस पर कुछ न कुछ बिना लिखे न रहता। मेरा यह भी विश्वास है कि यदि कोई मूल उपनिषदो का साम्नाय अध्येता जैन विद्वान होता तो भी उस पर कुछ न कुछ लिखता। जो कुछ हो, मैं तो यहाँ सिद्धसेन की प्रतिभा के निदर्शक रुप से प्रथम के कुछ पद्य भार सहित देता हूँ।
. कभी-कभी सम्प्रदायाभिनिवेश वश अपढ़ व्यक्ति भी आजही की तरह उस समय भी विद्वानो के सम्मुख चर्चा करने की धृष्टता करते होंगे। इस स्थिति का मजाक करते हुए सिद्धसेन कहते है कि बिना ही पढ़े पण्डितंमन्य व्यक्ति विद्वानो के सामने बोलने की इच्छा करता है फिर भी उसी क्षण वह नहीं फट पड़ता तो प्रश्न होता है कि क्या कोई देव-शक्तियां दुनिया पर शासन करने वाली है भीसही? अर्थात् यदि कोई न्यायकारी देव होता तो ऐसे व्यक्ति को तत्क्षण ही सीधा क्यों नहीं करता?
यदशिक्षितपण्डितो जनो विदुषामिच्छति वक्तुमग्रतः । न च तत्क्षणमेव शीयते जगत: किं प्रभवन्ति देवता ।।
विरोधी बढ़ जाने के भय से सच्ची बात भी कहने में बहुत समालोचक हिचकिचाते है। इस भीरु मनोदशा का जवाब देते हुए दिवाकर कहते है कि पुराने ८रुषो ने जो व्यवस्था स्थिर की है क्या वह सोचने पर वैसी ही सिद्ध होगी? अर्थात् सोचने पर उसमें टि दिखेगी तब केवल उन मृत पुरुखो की जमी प्रतिष्ठा के कारण हमें हाँ मिलाने के लिए मेरा जन्म नहीं हुजा है। यदि विद्वेषी बढ़ते हों तो बढ़े। पुरातनैर्या नियता व्यस्थितिस्तत्रैव सा किं परिचिन्त्य पेस्यति। तथेति वक्तुं मृतरुढगौरवादहन्न जात्त: प्रथयन्तु वि द्वेषः ।।
हमेशा पुरातन प्रेमी, परस्पर विरुद्ध अनेक व्यवहारो को देखते हुए भी अपने इष्ट किसी एक को यथार्थ और बाकी को अयथार्थ करार देते हैं। इस दशा से ऊब कर दिवाकर कहते हैं कि-सिद्धान्त और व्यवहार अनेक प्रकार के है, वे परस्पर विरुद्ध भी देखे जाते है। फिर उनमें से किसी एक की सिद्धि का निर्णय जत्दी केसे हो सकता है ? तथापि यही मर्यादा है दूसरी नहीं एसा एक तरफ निर्णय कर लेना यह तो पुरातन प्रेम से जड़ बने हुए व्यक्ति को ही शोभा देता है, मुझ जेसे को नहीं। बहुप्रकाराः स्थितयः परस्परं विरोधयुक्ताः कथमाशु निश्चयः। विशेषसिद्धावियमेव नेति वा पुरातनप्रेमलस्य यु त्यते ।।
जब कोई नई चीज आई तो चट से सनातन संस्कारी कह देते हैं कि, यह तो पुराना नहीं है। इसी तरह 38 किसी पुरातन बात की कोई योग्य समीक्षा करे तब भी वे कह देते हैं कि यह तो बहुत पुराना है, इसकी टीका न कीजिए। इस अविवे की मानस को देख कर मालविकाग्निमित्र मैं कालिदास को कहना पड़ता है किपुराणमित्येव न साधु सर्व न चापि काव्यं नवमित्र वद्यम् । सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेय द्धिः ।।
. (कमश:) :
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