Book Title: Jain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
View full book text
________________
मृगावती
पायेगी इसलिए कोई अन्य स्त्री ले आये तो ठीक।' ऐसे विचार से वे एक अन्य स्त्री को पकड लाये। तब वह कुलटा स्त्री इर्ष्या से उसके छिद्र ढूंढने लगी और उसे अपना हिस्सेदार मानने लगी। एक बार सब चोर कोई ठिकाने चोरी करने गये थे, उस समय छल करके वह कुलटास्त्री कुछ नया दिखाने के बहाने एक कुएँ के पास उस स्त्री को ले गयी और कुंए मैं देखने के लिए कहा। सरल स्त्री कुँए में देखने लगी तो उसे धक्का मारकर कुंए में गिरा दिया फ चोरों ने आकर पूछा कि 'वह स्त्री कहाँ है?' तब उसने कहा, 'मुझे क्या खबर ? तुम तम्हारी पत्नि की क्यो देखभाल नहीं करते ? ' चोर समझ गये कि जरुर उस बेचारी को इसने इर्षा से मार डाला है।'
वि. सं. २०९४, आसो सुह-७, भंगणवार ता. ७-१०-२००८ १०८ धर्म तथा विशेषांक
ब्राह्मण चोर बना था उसने सोचा कि दुःशील के बारे में पूछने कि लज्जा आने से प्रथम मन से पूछा, बाद में मैने कहा, वाणी से पूछा- इसलीये उसने 'यासा सासा' ऐसे अक्षरों से पूछा कि क्या वह स्त्री मेरी बहिन है ? उसका उत्तर हमने 'एव मेव' कहकर बता दिया, 'वह उसकी बहिन है।' इस प्रकार रागदेषादिक से मूढ़ बने प्राणी इस संसार में भवोभव भटकते है और विविध दुःख भुगतते है ।
इस प्रकार सर्व हकीकत सुनकर वह ब्राह्मण पुरुष परम संवेग पाकर प्रभु से दीक्षा अंगीकार करके वापिस पल्ली में आया और चारसों निन्यानवें को प्रतिबोधित करके सबको व्रत ग्रहण कराया।
योग्य समय पर मृगावती ने उठ कर प्रभु को शीश झुकाते हुए कहा कि 'चण्डप्रद्योत राजा की आज्ञा पाकर मैं दीक्षा लूंगी। तत्पश्चात् चण्डप्रद्योत के पास आकर कहा कि 'यदि आपकी संगति हो तो मैं दीक्षा लूं क्यों कि मैं इस संसार से उद्धेगित हुई और मेरा पुत्र हो आपको सौंप ही दीया है।' यह सुनकर प्रभु के प्रभाव से प्रद्योत राजा का वैर शांत हो क्या सो उसने मृगावती के पुत्र उदयन को कौशांबीनगरी का राजा बनाया और मृगावती की दीक्षा लेने की आज्ञा दी । तत्पश्चात् मृगावती ने प्रभु दीक्षा ली। उसके साथ अंगारवती वगैरह राजा की
য
आठ स्त्रियों ने भी दीक्षा ली। प्रभु ने कइयों को शिक्षा देकर उन्हें चंदना साध्वी को सौंप दिया। उन्होंने साध्वीजी चन्दनबाला की सेवा करके सर्व जानकारी पाली।
192
भव्यजनो को प्रतिबोध करते हुए श्री वीर भगवंत फिर से कौशांबी नगरी में पधारे दिन के आखिर प्रहर पर चन्द्र, सुर्य शाश्वत विमान में बैठकर प्रभु को वंदना करके आये, उनके तेज से आकाश में उद्योत हुआ 'देखकर लोग कौतुक से वही बैठे । रात्रि जानकर अपने उठने का समय जानकर चंदना साध्वी अपने परिवार के साथ वीर प्रभु को वन्दना करके
पहुँच गयी, लेकीन मृगावती सूर्य के उद्योत के के कारण दिन के भ्रम से रात्रि हुई जानी नहीं। इससे वह वहाँ ही बैठी रही। तत्पश्चात् जब सूर्य-चन्द्र चले गये तब मृगावती' रात्रि हो गई' जानकर कालातिक्रमण के भय से चकित होकर उपाश्रय पर आयी । चन्दना ने उसको कहा, 'अरे ! मृगावती । तेरे जैसी कुर्ल न स्त्री को रात्रि में अकेला रहना शोभा देता है?' ये वचन सुनकर मृगावती चन्दना से बार बार क्षमापना करने लगी इस प्रकार शुभ भाव से घात कर्मों के क्षय से मृगावती को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उस समय निद्रावश बनी हुई चन्दना के समीप से एक सर्प जा रहा था । उसे केवलज्ञान की शक्ति से देखकर मृगावती ने उनका हाथ संथारे पर से उठा लिया, इससे चन्दना ने जागकर पूछा कि 'मेरा हाथ तूने क्यों उठाया?' मृगावती बोली, 'यहाँ से एक बड़ा सर्प जा रहा था।' चन्दना ने पूछा, ' 'अरे मृगावती! ऐसे अंधेरे में तूने सर्प को किस प्रकार देखा ? उसका मुझे आश्चर्य होता है।" 'मृगावती बोली, 'हे भगवी सती! मुझे उत्पन्न हुए केवलज्ञान चक्षु से उसको मैंने देखा । यह सुनकर वह बोल उठी : '
..
अरे केवली की आशातना करनेवाली एसेमें - मुझे धिक्कार है।' इस प्रकार अपनी आत्मा की निंदा करने से चंदना को भी केवलज्ञान हुआ
***