Book Title: Jain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Author(s): Premchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
Publisher: Mahavir Shasan Prkashan Mandir
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चंदनबाला
• १०८ धर्म था न शासन (अठपाडिङ) विशेषांक ता. ४-११-२००८, मंगणवार वर्ष - २१ खंड - १
करके चारित्र की याचना की।
देवताओं ने दिया हुआ धन सात क्षेत्रो में खर्च करकेउसने दीक्षा ली।
हो, सर मुण्डन किया गया हो व रूदन करती हो ऐसी स्त्री अट्टम के पारण पर सूपड के कौने से यदि मुझे भिक्षा काल व्यतीत हो जाने के बाद उडद मझे भिक्षा में दे तो उससे मुझे
पारणा करना है।'
ऐसे अभिग्रह वीर प्रभु को पधारे देखकर प्रसन्न होकर वह कहने लगी; 'हे तीनों जगत के वंदनीय प्रभु! मेरे पर प्रसन्न होकर यह शुद्ध अन्न स्वीकार करके मुझे कृतार्थ करिए ।' अपने अभिग्रह के १३ वचन में से १ वचन कम याने अभिग्रह के वचन सब तरह से पूर्ण हो रहे थे लेकिन एक रुदन की अपूर्णता देखकर प्रभु वापिस लौटने लगे। यह देखकर चन्दनबाला स्वयं को हीन भाग्य समझकर जोर से रुदन करने लगी। वीर भगवान ने रुदनध्वनि सुनकर अपना अभिग्रह पूर्ण हुआ माना और उड़द की भिक्षा का स्वीकार किया ही था कि तुरंत ही देवताओं ने आकर बारह करोड़ सुवर्णमुद्राओं की वृष्टि की। उसी समय चन्दनबकाला की लोहे की बेड़ीया टूट गई और सुन्दर आभूषण बन गये। सीर पर सुंदर केश आगये। आकाश में देवदुभि बजने लगी।
देवदुंदुभी सुनकर नगरजन एकत्रित हुए। वहाँ का राजा शतानिक भी वहाँ आ पहुँचा। वहाँ देवकृत्य सुवर्णवृष्टि देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया और बोला कि' यह सर्व इस चन्दनबाला का हो जाये।' इस प्रकार भगवंत ने पाँच माह और पच्चीस दिन बीतने पर पारणा किया ।
चन्दनबाला बड़े हर्ष से बोली, 'आज मेरे महाभाग्य मैने प्रभु को पारणा करवाया इसमें मूला सेठानी भी धन्य हैं । वे मेरी माता समान है। मेरी माता धारीणी जो कार्य नहीं कर सकी वे सब मेरी ये मूलादेवी माता से सिद्ध हुआ है।' उसने धनावह सेठ को भी समझाया कि, 'मूलादेवी को कुछ कहना मत।' इससे मूला श्राविका बनी और चन्दनबाला का योग्य सम्मान करने लगी।
महावीर प्रभु यहाँ से विहार कर गये । क्रमानुसार उनके सर्व कर्मों का क्षय हुआ और उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु के पास आकर चन्दनबाला ने प्रभु को प्रणाम
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जिन्होंने चन्दनबाला से दीक्षा ली थी वह मृगावती एक बार भगवान की वाणी सुनने गई थी। भगवान की वाणी श्रवण करने के लिये सूर्य, चन्द्र भी पधारे थे। उनके उजाले के कारण मृगावती उपाश्रय पर बड़ी देर से पहुँची रात्रि हो जाने के कारण चन्दनबाला ने उन्हें डाँटा ।
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मृगावती अपने पर लगे अतिचार के लिए आत्मा की निंदा करती हुई, 'अब एसा नहीं करूंगी' कहकर मिथ्या दुष्कृत्य देने लगी । आत्मनिंदा के उत्कृष्ट परिणाम स्वरूप उन्हें केवलज्ञान हुआ। उसी रात्री को मृगावती जो चन्दनबाला के पास ही खड़ी थी, उसने चन्दवाला के समीप से जाता हुआ एक साँप देखा । उसने चन्दनबाला का हाथ उठाकर दुसरी और रखा तब चन्दनबाला बोली, 'तुमने मेरा हाथ क्यों उठाया ?' मृगावती ने उत्तर दिया, 'यहाँ से सर्प जा रहा था, जिससे मैने आपका हाथ उठाकर दूसरी और रखा ।' चन्दनबाला ने पूछा, 'रात्रि के घोर अंधकार मे तुमने सर्प कैसे देखा ?'
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मृगावतीने कहा, 'ज्ञान से ।' 'अहो हो ! प्रतिपाति या अप्रतिपाति ज्ञान ? चन्दनबालाने पूछा। जवाब में मृगावतीने 'अप्रतिपाति ज्ञान' कहा । चन्दनबाला समझ गई कि मृगावती को केवलज्ञान हुआ है। उसने मृगावती से क्षमायाचना करके मिथ्या दुष्कृत्य कीया। इस कारण से चन्दनबाला ने भी केवलज्ञान पाया और दोनों ने मुक्ति पाई।
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