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३८ : जैनसाहित्यका इतिहास
आगे पं० जीने वर्तमान ति० ५० के संकलनका कर्ता वीरसेनके शिष्य जिनसेन को बतलाया है।
पं० फूलचन्द्रजीकी उक्त युक्तियोंका विरोध पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने 'तिलोयपण्णत्ति और यतिवृषभ' शीर्षक लेखमें किया है। और सिवाय अन्तिम बात को स्वीकार करनेके और किसी भी युक्ति को मान्य नहीं किया है । तथा
क्त गद्यांशको बादमें किसीके द्वारा धवला आदि परसे प्रक्षिप्त किया हुआ बतलाया है, और यह संभावना की है कि और भी कुछ गद्यांश ऐसे हो सकते हैं जो धवला परस प्रक्षिप्त किये गये हों। चुनाचे जिस गद्यांश को प्रारम्भमें धवला परसे ति० प० में प्रक्षिप्त हुआ बतलाया है, मुख्तार साहबने उसके आदि और अन्त भागको भी उसमें सम्मिलित करके प्रक्षिप्त बतलाया है। किन्तु यह प्रक्षेप जान बूझकर किसी के द्वारा किया गया नहीं बतलाया है और अन्तमें यह निष्कर्ष निकाला है कि शास्त्रीजीका यह लिखना कि तिलोयपण्णत्तिका संकलन शक सम्वत् ७३८ (वि० सं० ८७३) से पहलेका किसी भी हालतमें नहीं हो सकता तथा इसके कर्ता यतिवृषभ नहीं हो सकते 'उनके अति साहसका द्योतक है और उसे किसी भी तरह युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता।
प्रो० हीरालालजीने ति० प० भा० २ की प्रस्तावनामें पं० फूलचन्दजीकी युक्तियों और मुख्तार साहबके विरोधकी समीक्षा करते हुए इस बातको तो मान्य किया है कि परिवर्धन और संस्कार होकर ति० प० का वर्तमान रूप धवलाकी रचनाके पश्चात् किसी समय उत्पन्न हुआ होगा। किन्तु वर्तमान ति० प० के कर्ता वीरसेनके शिष्य जिनसेन हैं, पं० जीकी इस कल्पनाके सम्बन्धमें समुचित साधक बाधक प्रमाणोंकी अनुपलब्धि बतलाई है। ___ श्रीयुत प्रेमीजी ने भी 'लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ति' शीर्षक लेखमें मिलावटकी बातको मान्य किया है।
ति० ५० से भी उसका समर्थन होता है । ति०प० की एक अन्तिम गाथामें उसका परिमाण आठ हजार श्लोक बतलाया है। किन्तु वर्तमान ति० ५० का परिमाण नौ हजार श्लोक प्रमाणसे भी अधिक है।
इस तरह ति० प० में प्रक्षिप्त अंश भी है और वह अपने मूल रूपमें नहीं है, यह बात तो सर्वमान्य है। किन्तु उसमें कौन अंश प्रक्षिप्त है और कोन
१. यह लेख वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थमें प्रकाशित हुआ है। पश्चात् पुरातन जैन
वाक्य सूची और जैन माहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश नामक निबन्ध संग्रहमें भी प्रकाशित हुआ है। .