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३३० : जैनसाहित्यका इतिहास
सिंहसूर-विद्वानोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि जैनपरम्परामें मल्लवादी नामके एक प्रख्यात आचार्य हो गये हैं और उन्होंने 'नयचक्र' नामक ग्रन्थ रचा था। यह ग्रन्थ तो आज अनुपलब्ध है किन्तु उसकी सिंहसूरिगणि क्षमाश्रमण रचित न्यायागमानुसारिणी टीका उपलब्ध है और उसका कुछ भाग गायकवाड़ प्राच्य ग्रन्थमाला वड़ौदा तथा श्रीलब्धिसूरीश्वरजैनग्रन्थमाला छाणीसे प्रकाशित हुआ है । यद्यपि पूरी टीका प्रकाशमें न आ सकनेसे उक्त नयचक्र टीकाके रचयिता सिंहसूरिंगणि क्षमाश्रमणके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका है, तथापि विद्वानोंकी आम धारणा यही है कि सिद्धसेनगणिके द्वारा अपनी तत्त्वार्थ टीकाकी प्रशस्तिमें स्मृत सिंहसूर ही नयचक्र टीकाके रचयिता हैं।
यद्यपि सिद्धसेनने 'सिंहसूर' नाम दिया है और नयचक्र टीकाकी उपलब्ध प्रतियोंमें 'सिंहसूरि' नाम मिलता है यथा-इति नियमभङ्गो नवमोऽरः श्रीमल्लवादिप्रणीतनयचक्रस्य टीकायां न्यायागमानुसारिण्यां सिंहसूरिगणि क्षमाश्रमणदृब्धायां समाप्तः ।।
किन्तु एक तो 'सिंहसूर'का लेखकोंकी कृपासे 'सिंहसूरि' हो जाना संभव है। दूसरे, सिद्धसेनने जिस रूपमें उनका स्मरण किया है, वह रूप नयचक्र टीकाके कर्ताके सर्वथा अनुरूप है, काल क्रमकी दृष्टिसे भी ठीक बैठता है। अतः यह स्वीकार करना ही उचित होगा कि नयचक्र टीकाके कर्ता सिंहसूरगणि सिद्धसेन गणिके प्रगुरु-गुरुके गुरू थे।
सिंहसूरने अपनी नयचक्रटीकाके प्रारम्भमें 'उक्तञ्च' लिखकर नीचे लिखी तीन गाथाएं उद्धृत की हैं
'जं चउदस पुव्वधरा छट्ठाणगया परुप्परं होति । तेण उ अणंतभागो पण्णवणिज्जाण जं सुत्तं ॥१॥ पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुअणिबद्धो ॥२॥ अक्खरलंभेण समा ऊणहिया होंति मइविसेसेहिं ।
ते वि य मइविसेसे सुअणाणभंतरे जाण ॥३॥' ये तीनों गाथाएँ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्य की हैं। किन्तु मलधारी हेमचन्द्रकी टीकाके साथ मुदित प्रतिमें गाथा दो प्रथम है और गाथा प्रथम उसके पश्चात् है और वहाँ उनकी क्रमसंख्या इस प्रकार १४२,१४१ और १४३ है। ____ अतः यह निश्चित है कि सिंहसूरने विशेषावश्यक भाष्यसे उक्त गाथाएँ अपनी नयचक्रटीकामें उद्धृत की हैं। जैसलमेर भण्डारसे प्राप्त विशेषावश्यक