Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 353
________________ तत्त्वार्थविषयक टोका-साहित्य . 341 किन्तु सिद्धान्तिदेव लिखा है। सिद्धान्ती होना और बात है और सिद्धान्तचक्रवर्ती होना दूसरी बात है। सिद्धान्त चक्रवर्ती पद सिद्धान्ती या सिद्धान्ति देव पदसे बड़ा है। 2. दूसरे गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्राचार्यने अपने ग्रन्थोंमें अपने गुरु अथवा गुरुओंका नामोल्लेख अवश्य किया है / परन्तु द्रव्यसंग्रहमें वैसा नहीं पाया जाता। ___3. तीसरे, टीकाकार ब्रह्मदेवने अपनी टीकाके प्रस्तावना वाक्यमें जो इस ग्रन्थके रचे जानेका विवरण दिया है, वह सब ऐसे ढंगसे और ऐसी तफ़सीलके साथ दिया है कि उसे पढ़ते हुए यह ख्याल आये बिना नहीं रहता कि या तो ब्रह्मदेव उस समय मौजूद थे जब कि द्रव्यसंग्रह तैयार किया गया, अथवा उन्हें दूसरे किसी खास विश्वस्त मार्गसे इन सब बातोंका ज्ञान प्राप्त हुआ था और इस लिये इसे सहसा असत्य या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। और जबतक इस कथनको असत्य सिद्ध न कर दिया जाये तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि ग्रन्थ उन्हीं नेमिचन्द्रके द्वारा रचा गया है जो कि चामुण्डरायके समकालीन थे; क्यों कि उनका समय ईसाकी १०वीं शताब्दी है जब कि भोजकालीन नेमिचन्द्रका समय ईसाकी ११वीं शताब्दी बैठता है। 4. चौथे, द्रव्य संग्रहके कर्ताने भावास्रवके भेदोंमें प्रमादको भी गिनाया है और अविरतके पाँच तथा कषायके चार भेद ग्रहण किये हैं / परन्तु गोम्मटसारके कर्ताने प्रमादको भावास्रवके भेदोंमें नहीं माना और अविरतके (दूसरे ही प्रकारसे) बारह तथा कषायके 25 भेद स्वीकार किये हैं। मुख्तार साहबके द्वारा उपस्थित किये गये चारों ही कारण सबल है / अतः जब तक कोई प्रबल प्रमाण प्रकाशमें नहीं आता तब तक द्रव्यसंग्रहको गोम्मटसारादिके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीकी कृति नहीं माना जा सकता। टीकाकार ब्रह्मदेवके प्रास्ताविक कथनके अनुसार द्रव्य संग्रहके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्ति देव धारानगरीके अधिपति राजा भोज देवके समकालीन थे। धाराधिपति राजा भोज अपनी विद्वत्ता और विद्वत्प्रियताके कारण अति प्रसिद्ध हैं / इनका राज्य काल वि०सं० १०७६से वि० 1112 तक माना जाता है / अतः यदि ब्रह्मदेवका उक्त कथन ठीक है तो उक्त समयमें द्रव्य संग्रहकी रचना सिद्ध होती है। अब हम देखेंगे कि अन्य आधारोंसे उक्त कथन कहाँ तक प्रमाणित होता है। 1. पं० आशाधरने अपने' अनगार धर्मामृतकी टीकामें 'उक्तं च' करके कई गाथाएँ उद्धृत की हैं जो द्रव्य संग्रहकी है। एक गाथा तो 'तथा चोक्तं द्रव्य संग्रहेऽपि' लिखकर उद्धृत की है। पं० आशाधरने उसकी प्रशस्तिमें टीका की समा१. अन० धर्मा० टी०, पृ० 4, 112, 116, 118

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