Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 390
________________ ३७८ : जेनसाहित्यका इतिहास ... .. ४.० नेभिवत्तने' अपने आराधना कथाकोशकी प्रशस्तिमें विद्यानन्दिके . पट्टधर मल्लिभूषण और उनके शिष्य सिंहनन्दिका गुरुरूपमें स्मरण करके श्रुतसागरका भी जयकार किया है। इससे प्रतीत होता है कि वह उस समय जीवित थे। किन्तु इन्हीं ० नेमिदत्तने वि० सं० १५८५ में श्रीपाल चरित्र भी रचा है और उसमें श्रुतसागरके द्वारा रचित श्रीपालका उल्लेख करते हुए श्रुतसागरको 'पूर्वसूरि' तथा उनके द्वारा रचित श्रीपालचरितको 'पुरा रचित' कहां है। इससे. ज्ञात होता कि उम समय श्रुतसागरका अवसान हो चुका था। ५. श्रुतसागरने अपनी पल्यविधान' कथाकी प्रशस्तिमें लिखा है कि राजा भानुके मंत्री भोजराजकी पुत्रीके साथ श्रुतसागरने गजपन्या और तुंगीगिरिकी बन्दना की थी। राजा भानु ईडरके राव भाणजी हैं। . इनका राज्यकाल सं० १५०२ से १५२२ तक है। पल्य विधान कथाकी रचना मल्लिभूषणके उपदेशसे हुई है और उस समय विद्यानन्दिके पट्टपर वही विराजमान थे। विद्यानन्दिका पट्टकाल १४९९ से आरम्भ होता है और मल्लिभूषणका पट्टकाल वि० सं० १५४४ से १५५६ तक मिलता है। इन दोनोंका पट्टकाल ही श्रुतसागर सूरिका समय होना चाहिए । स्व० बाबा दुलीचन्दजीकी सं० १९५४ में लिखी गई ग्रन्थ सूचीमें श्रुतसागरका समय वि० सं० १५५० लिखा हुआ है । अतः वह विक्रमकी सोलहवीं शताब्दीके पूर्षिके विद्वान थे। श्रुतसागरी टीका तत्त्वार्यसूत्रपर श्रुतसागरजी रचित श्रुतसागरी टीका एक तरहसे पूर्वरचित सब टीकाओंका निचोड़ है । उसके प्रारम्भिक श्लोकसे ही यह बात ज्ञात हो जाती है। उसके द्वारा श्रुतसागरजीने तत्वार्थसूत्रकार उमास्वामीके साथ ही साथ पूज्यपाद, प्रभाचन्द्र, विधानन्दि और अकलंकको स्मरण किया है। ये चारों ही आचार्य तत्त्वार्थसूत्रके टीकाकार हैं। इनमें सबसे अन्तिम हैं प्रभाचन्द्र । उनकी छोटीसी टिप्पण रूप वृत्तिको तो उन्होंने प्रायः पूरा आत्मसात् कर लिया है। वृत्तिका प्रारम्भ सर्वार्षसिसिके बारम्भिक शब्दोंकी शैलीको अपनाकर होता है। सर्वाषसिदिमें उस प्रश्नकर्ता भव्यका नाम नहीं लिखा जिसके प्रश्नके ऊपरसे बाचायने.यह सूत्र अन्य रचा। प्रभाचन्द्रने उसको 'प्रसिद्धचक नामा' लिखा है, श्रुतसागरने "याफनामा लिखा है। १३वीं शताब्दीके बालचन्द्र मुनि द्वारा जो १. वही, पृ० १७९। २. जै० प्र० प्र०सं०, १ मा०, १० १७। ....... मा सम्प्र०, पृ० १७८.। ... ................

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