Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 389
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३७७ महावादि बिजेता, तर्क-व्याकरण-छन्द-अलंकार सिद्धान्त-साहित्यादि शास्त्र निपुण, प्राकृत व्याकरणादि अनेक शास्त्र चंचु, उभयभाषा कविचक्रवर्ती, ताकिकशिरोमणि, परमागमप्रवीण आदि विशेषणोंसे अलंकृत किया है। तत्त्वार्थवृत्तिके अन्तिम सन्धिवाक्यमें उन्होंने लिखा है कि मैंने श्लोकवातिक, सर्वार्थसिखि, न्यायकुमुद चन्द्रोदय, प्रमेयकमलमार्तण्ड, राजवार्तिक, प्रचण्ड अष्टसहनी आदि ग्रन्थोंका गम्भीरतासे अध्ययन किया है। इससे प्रकट है कि श्रुतसागर अपने समयके अच्छे विद्वान और ग्रन्थकार थे। श्रतमागरने अपनी किसी भी रचनामें उसका रचनाकाल नहीं दिया। किन्तु अन्य आधारोंसे उनके समयका निर्णय हो जाता है जिनका विवरण निम्न प्रकार है- १. पअनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीर्तिका एक शिलालेख देवगढ़में है, जिसपर सम्वत् १४९३ अंकित है । यह देवेन्द्रकीर्ति श्रुतसागरके गुरूके गुरू थे। २. सूरतके एक मूर्तिलेखमें सं० १४९९ और एकमें सं० १५१३ अंकित है। ये दोनों मूर्तियां देवेन्द्रकोतिके शिष्य विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित हुई थीं। विद्यानन्दिके उपदेशसे प्रतिष्ठित अन्य मूर्तियों पर सं० १५१८, सं० १५३१ और सं० १५३७ अंकित है। ३. सूरतमें पद्मावतीकी एक मूर्ति पर सं० १५४४ अंकित है। तथा उस समय विद्यानन्दिके पट्ट पर मल्लिभूषण विराजमान थे। इन्हीं मल्लिभूषणके उपदेशसे श्रुतसागरने कुछ कथाएं रची थीं और ये 9 तसागर के गुरू भाई थे। १. इत्यनवद्यगद्यपद्यविद्याविनोदनोदितप्रमोदपीयूषरसपानपावनमतिसमाजरत्नराण मतिसागरयतिराजराजितार्थनसमर्थन तर्कव्याकरणछन्दोऽलंकारसाहित्याधिशास्त्रनिशितमतिना यतिना श्रीमद्देवेन्द्रकीर्तिभट्टारकप्रशिष्येण शिष्येण ॥ सकलविद्वज्जनविहितचरणसेनस्य विद्यानन्दिदेवस्य संदितमिथ्यामतदुर्गरेग. श्रुतसागरेण सूरिणा विरचितायां श्लोकवार्तिक-सर्वार्थ सिद्धि न्यायकुमुदचन्द्रोदय-प्रमेयकमलमार्तण-राज़वार्तिकप्रचण्डाष्टसहस्रीप्रभृतिग्रन्थसन्दमनिर्भराव - लोकनबुद्धिविराजितायां तत्त्वार्थटीकायां दशमोऽध्यायः ।' तत्त्वावृत्ति । देखो-जै० सा० इ०, पृ. ३७१-३७७ । जै० म०प्र० सं०, भाग १, की। प्रस्ता०, पृ० १४-१८ । २. भ. सम्प्र०, पृ० १६९ । ३. भ. सम्प्र०, पृ० १६९। . ४. वही, पृ० १७७।

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