Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 382
________________ ३७० : जैनसाहित्यका इतिहास काष्ठासंघमें भट्टारक सुरेन्द्र वगैरह तथा मुनीश्वर हेमकीर्ति हुए। हेमकीतिके पट्टपर धर्मचन्द्र हुए । उनके पट्टपर प्रभाचन्द्र हुए। एक बार बिहार करते हुए भट्टारक प्रभाचन्द्र सकीट नामके नगरमें पधारे। उस नगरके श्रावक बड़े धर्मात्मा दानी और गुरुभक्त थे। वहाँके जिनालयमें भगवान ऋषभदेवका प्रतिबिम्ब था। प्रभाचन्द्रने अपने मनमें विचारा कि कोई उत्तम काव्य रचा जाये । तब सम्बत् १४८९ में भाद्रपद शुक्ला पंचमीको रविवारके दिन विशाखा नक्षत्र में प्रभाचन्द्रने जैन नामक ब्रह्मचारिके लिये इस तत्त्वार्थ टिप्पणको रचा। इस तत्त्वार्थ रत्न प्रभाकर नामके तत्त्वार्थ टिप्पणकी तीन प्रतियाँ हमारे सामने उपस्थित हैं। उनमेंसे दो प्रतियाँ धर्मपुरा दिल्लीके नये मन्दिरकी है। और एक प्रति सेठके कूचेके मन्दिर की है। सेठके कूचेके मन्दिरको प्रति और नये मन्दिरको आ० ६ ( क ) प्रति प्रायः समान हैं। किन्तु नये मन्दिरकी दूसरी प्रति आ० २४ ( क ) के प्रारम्भमें न तो मंगल गाथा है और न वे १३ श्लोक ही है जिनमें टीकाकी उत्पत्तिका विवरण आदि दिया है। उन सबके स्थानमें 'काल्यं द्रव्यषट्क', 'सिद्धजयप्पसिद्धे', 'उज्जवणमुज्जवणं' इन तीन पद्योंकी व्याख्या है। ये पद्य और उनकी व्याख्या उक्त दोनों प्रतियोंमें नहीं है। उनका प्रारम्भ 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि श्लोककी व्याख्यासे होता है। और वहाँसे तीनों प्रतियाँ समान है। इस प्रकारका अन्तर कैसे पड़ा, कहा नही जा सकता। _ विज्ञ पाठक जानते है मूल तत्त्वार्थ सूत्रकी जो प्रतियाँ सर्वत्र पाई जाती हैं उन सबके प्रारम्भमें उक्त तीन पद्य प्रायः पाये जाते हैं । वे तीनों पद्य तत्त्वार्थ सूत्रके नहीं है यह निश्चित है। कब, कैसे, किसके द्वारा ये पद्य तत्त्वार्थ सूत्रके प्रारम्भमें जोड़ दिये गये, यह अभी तक अज्ञात है। किन्तु तत्त्वार्थरत्नप्रभाकर की एक प्रतिके आरम्भमें इनकी व्याख्या पाई जानेसे यह सिद्ध होता है कि यदि यह व्याख्या त० प्र० के कर्ताकी ही है तो विक्रमकी पद्रहवीं शताब्दीमें अथवा उससे भी पहले उक्त तीन पद्य तत्त्वार्थसूत्रके अंग बन चुके थे । अस्तु, यह टिप्पण संस्कृत और हिन्दीकी मिश्रण शैलीमें लिखा गया है, यह इसकी भाषा शैलीकी विशेषता है। संस्कृत और प्राकृत मिश्रित भाषामें तो धवलाजय धवला जैसे महान टीका ग्रन्थ उपलब्ध है। किन्तु संस्कृतके साथ हिन्दीके मिश्रणसे रची गई कोई टीका मेरे देखने में नहीं आई थी। इस टीकामें हिन्दी अंश ही अधिक है। प्रारम्भके कुछ सूत्रोंकी टीका तो संस्कृतमें ही है, किन्तु उसके पश्चात् मिश्रित रूपमें है। कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं । ‘एवं गुण विराज मानं जीव तत्वं, व्यवहारी प्राण वश, पञ्चेन्द्रिय प्राण पंच,

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