Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 383
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३७१ मनवचन काय प्राण तीन, उस्वास निश्वास प्राण एक, आव प्राण एक, एवं व्यवहार नय प्राण दश भवति, निश्चय प्राण चार चत्वारि भवन्ति ।' 'भाव पंच कथ्यते । प्रथम उपशम भाव चतुर्थगुण स्थान ते एकादशम गुण स्थानलग होइ । प्रथम द्वितीय तृतीय गुणस्थाने उपशम भाव भवति (?) । उपशम सम्यक्त्वं न भवति । क्षायिकभाव चतुर्थगुणस्थान आदि चतुर्दश गुणस्थान अंते भवति । क्षायिक सम्यक्त्वं चतुर्थ गुणस्थानात् भवति ।' 'तत्र वाग्गुप्ति कोऽर्थः । बचन करि मार बंध न बोलई ॥१॥ मनगुप्ति को विशेषः मन करि मार बंधन विक्रिय परिणाम चित्त बिजइ नाही ॥२॥ ईर्या समिति कोर्थः । एक दंड प्रमाण भूमि देखत चालई । जीवरक्षा निमित्ते ।।३।। ___टीकाकार प्रभाचन्द्र संस्कृत और प्राकृतके अच्छे विद्वान ज्ञात होते हैं । और उनका अध्ययन भी बहुत विस्तृत जान पड़ता है क्योंकि उनकी इस टीकामें संस्कृत और प्राकृत पद्योंके उद्धरण बहुत हैं। और वे उद्धरण मूलाचार, गोम्मटसार, तत्त्वार्थसार, आराधनासार, तत्त्वसार, स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि अनेक ग्रन्थोंसे दिये गये हैं। फिर भी इस तरह की संस्कृत मिश्रित हिन्दीमें टीका करनेका कारण यह हो सकता है कि जिन व. जैन तथा साधु हावाके लिये यह टीका रची गई वे संस्कृतके पूरे ज्ञाता न हों। और संस्कृत प्राकृतके विद्वान होनेके कारण भट्टारक प्रभाचन्द्र तत्कालीन लोक भाषामें रचना करने में निष्णात न हों, आज भी काशीमें संस्कृतके विद्वान संस्कृत मिश्रित भाषा बोलते हुए पाये जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्रको हरिभद्रीय टीका तथोक्त स्वोपज्ञ तत्त्वार्थ भाष्यपर एक छोटी वृत्ति भी है। इसके रचयिता हरिभद्र हैं । किन्तु यह वृत्ति केवल हरिभद्राचार्यकी ही कृति नहीं है, बल्कि इसकी रचनामें कम-से-कम तीन आचार्योंका हाथ है। जिसमेंसे एक हरिभद्र भी हैं। उन्होंने साढ़े पांच अध्यायोंपर वृत्ति रची है। इसके पश्चात् तत्त्वार्थ भाष्यके शेष भागपर जो वृत्ति है उसकी रचनामें दो आचार्योंका हाथ तो अवश्य है। उनमेंसे एकका नाम यशोभद्र है और दूसरे उनके शिष्य हैं जिनके नामका कोई पता नहीं। यशोभद्रके उस शिष्यने केवल दसवें अध्यायके अन्तिम सूत्रके भाष्यपर वृत्ति लिखी है, हरिभद्रकी टीकाके पश्चात्के शेष बचे भागके ऊपर यशोभद्रकी वृत्ति है । यह बात यशोभद्रके शिष्यने अपनी टीकामें स्वयं लिखी है । यथा १. यह टीका रतलामस्थ श्री ऋषभदेवजी केसरीमलजी नामक संस्थाकी ओरसे प्रकाशित हुई है।

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