Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 378
________________ ३६६ : जेनसाहित्यका इतिहास परम्पराका परिचय देते हुए उन्हें शुभचन्द्रका शिष्य बतलाया है । यह दान प्रशस्ति वि० सं० १५१९ में लिखी गई है और उस समय जिनचन्द्र मौजूद थे । चूंकि यह जिनच न्द्र शुभचन्द्रके शिष्य थे अतः यह भी भास्करनन्दिके गुरु नहीं हो सकते । चौथे जिनचन्द्र वे हैं जिनका नाम श्रवणबेलगोलाके शिला लेख नं० ५५(६९) में द्वितीय माघनन्दि आचार्यके पश्चात् आया है । पं० ए० शान्तिराज शास्त्रीने सुखबोध वृत्तिकी अपनी प्रस्तावनामें बिना किसी उपपत्तिके इन्हीं जिनचन्द्र को भास्करनन्दिका गुरु होने की संभावना की है और लिखा है कि वह माघनन्दि आचार्य १२५० में जीवित थे ऐसा उल्लेख है । अत: किन्हीं विद्वानोंने उनके उत्तर काल भावी जिनचन्द्राचार्यका काल १२७५ माना है । किन्तु शास्त्रीजीने यह नहीं स्पष्ट किया कि यह कौन सम्वत् है । श्रवणबेलगोलाके उक्त शिलालेखका संभावित समय लगभग शक सं० १०२२ ( वि० सं० ११५७ ) है । उसमें उल्लिखित माघनन्दिका समय १२५० कैसे हो सकता है । कर्नाटक कविचरितेके अनुसार एक माधनन्दिका समय ई० सन् १२६० ( वि० सं० १३१७) है । वे माघनन्दि श्रावकाचारके कर्ता है और उन्होंने शास्त्रसारसमुच्चयपर कनड़ीमें टीका लिखी है । शास्त्रीजीका अभिप्राय शायद उन्हींसे है । किन्तु उक्त शिलालेखमें उल्लिखित माघनन्दि उनसे भिन्न है और इसलिए उनके पश्चात् उल्लिखित जिनचन्द्रका भी वह समय नहीं हो सकता जो शास्त्रीजीने लिखा है । और बिना किसी आधारके इन जिनचन्द्रकी भास्करनन्दिका गुरु भी नहीं माना जा सकता । उक्त शिलालेखमें जिनचन्द्रको व्याकरणमें पूज्यपादके तुल्य, तर्कमें अकलंकके तुल्य और कवितामें भारविके तुल्य बतलाया है । किन्तु भास्करनन्दिके गुरु तो महा सैद्धान्त थे, उसका शिलालेखमें कोई निर्देश नहीं है । अतः उसके आधारपर भास्करनन्दिका समय निर्धारित नहीं किया जा सकता । उसका आधार तो उनकी टीका ही हो सकती है । भास्करनन्दि पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दके पश्चात् हुए हैं यह उनकी टीकाके मंगल श्लोकमें आगत 'विद्यानन्दाः ' पदसे स्पष्ट है । उन्होंने यशस्तिलक ( वि० सं० १०१७ ), गोम्मटसार, संस्कृत पञ्चसंग्रह ( वि० सं० १०७३ ) और वसुनन्दि श्रावकाचारसे पद्य उद्धृत किये हैं । वसुनन्दि विक्रमकी बारहवीं शताब्दीके विद्वान हैं । अतः भास्करनन्दि उसके पश्चात् ही किसी समय हुए हैं । तत्त्वार्थ सूत्र की दो अप्रकाशित टीकाएँ तत्त्वार्थसूत्र अपनी विशेषताओंके कारण अपने जन्मकालसे ही अत्यधिक

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