Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 377
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३६५ इस वृत्तिमें जिसको टीकाकारने सुखबोध वृत्ति नाम दिया है, एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि सर्वार्थ सिद्धिके प्रारम्भमें पाये जाने वाले मंगल श्लोक 'मोक्ष मार्गस्य नेतारं' आदिको तत्त्वार्थ सूत्रका मंगल श्लोक बतलाकर उसका भी व्याख्यान किया है । यथा-..."तत्त्वार्थसूत्रपदविवरणं क्रियते तत्रादौ नमस्कार श्लोकः... "अस्य समुदायार्थः कथ्यते ।' इससे पूर्वको किसी टीकामें न तो इस मंगल श्लोकको तत्त्वार्थ सूत्रका मंगल श्लोक कहा है और न किसीने उसकी व्याख्या ही की है। किन्तु इसके पश्चात् जो वृत्तियां रची गई हैं उनमें उक्त मंगल श्लोकको तत्त्वार्थ सूत्रका ही मानकर उसकी व्याख्या की गई है जैसा कि आगे ज्ञात हो सकेगा। ___ इस टीकामें ग्रन्थान्तरोंसे उद्धृत पद्योंकी संख्या भी पचाससे कम नहीं है। उनमेंसे अनेकोंका मूलस्थल ज्ञात नहीं हो सका । जिन स्थलोंको जाना जा सका है उनमें सोमदेवके यशस्तिलक चम्पू (वि० सं० १०१६) नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीका पूर्वार्ष) के त्रिलोकसार और गोम्मटसार, अमित गतिके पञ्च संग्रह (वि० सं० १०७३) और वसुनन्दि (विक्रमकी वारहवीं शती) के श्रावकाचारका नाम उल्लेखनीय हैं । __ इस टीकाके रचयिताका नाम पण्डित भास्कर नन्दि है। टीकाको अन्तिम प्रशस्तिमें टीकाकारने अपने गुरुका नाम जिनचन्द्र दिया है और उन्हें सिद्धान्तका पारगामी तथा चारित्रसे भूषित बतलाया है। तथा पुष्पिकाओंमें महासद्धान्त जिनचन्द्र भट्टारक नाम दिया है । प्रशस्तिमें जिनचन्द्र भट्टारकके गुरुका नाम सर्वसाधु दिया है और लिखा है कि सर्वसाधुने संन्यास पूर्वक मरण किया है। इसके सिवाय टीकाकारने अपने सम्बन्धमें और कुछ भी नहीं लिखा । जिनचन्द्र नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। एक जिनचन्द्र चन्द्रनन्दिके शिष्य थे। कन्नड़ कवि पोन्नने (९५० ई०) अपने शान्ति पुराणमें उनका उल्लेख किया है। किन्तु यह जिनचन्द्र चन्द्रनन्दी मुनिके शिष्य थे। एक जिनचन्द्र सिद्धान्त सारके रचयिता हैं । उनके सम्बन्धमें भी कुछ विशेष ज्ञात नहीं होता। एक जिनचन्द्र धर्मसंग्रहश्रावकाचारके कर्ता मेघावीके गुरु और पाण्डव पुराणके कर्ता शुभचन्द्राचार्यके शिष्य थे । तिलोय पण्णत्तिकी दान प्रशस्तिमें मेधावीने अपनी गुरु १. तस्यासोत् सुविशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारङ्गतः, शिष्यः श्री जिनचन्द्र नाम कालितचारित्रभूषान्वितः । शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुधस्तस्याभवत् तत्त्ववित्, तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ॥' २. जै० म०प्र० सं० (भाग १) की प्रस्ता० पृ. ३५। जै० सा० इ०, पृ. ३७८ । तत्त्वा० सुख० वृत्तिकी प्रस्ता० पृ० ४७ ।

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