Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 354
________________ ३४२ : जेनसाहित्यका इतिहास प्तिका काल वि० सं० १३०० दिया है । अतः यह निश्चित है कि वि० सं० १३०० से पूर्व द्रव्य संग्रहकी रचना हो चुकी थी । २. जयसेनाचार्यने पञ्चास्तिकायकी' टीकाके प्रारम्भमें द्रव्य संग्रहका उल्लेख किया है तथा उसकी रचनायें मोभा (सोम) श्रेष्ठीको निमित्त बतलाया है । जयसेनाचार्य विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं। अतः द्रव्य संग्रहकी रचना उनसे पूर्व हो चुकी थी । ३. जयसेनाचार्यने पञ्चास्तिकायकी टीका ( पृ० २५३ ) में तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थका उल्लेख किया है। श्री रामसेनने इस तत्त्वानुशासनकी रचना यद्यपि संस्कृतके अनुष्टुप् श्लोकोंमें की है तथापि उसमें पाँच पद्य आर्याछन्दमें भी हैं । जिनमें से चार इस प्रकार हैं 'धर्मादि श्रद्धानं सम्यक्त्वं ज्ञानमधिगमस्तेषाम् । चरणं च तपसि चेष्टा व्यवहाराद् मुक्तिहेतुरयम् ||३०|| निश्चयनयेन भणितस्त्रिभिरेभिर्यः समाहितो भिक्षुः । नोपादत्ते किञ्चिन्न च मुञ्चति मोक्षहेतुरसौ ॥ ३१ ॥ यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्यात्मा । दृगवगमचरणरूपस्य निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति जिनोक्तिः ।। ३२ ।। स च मुक्तिहेतुरिद्धो घ्याने यस्मादवाप्यते द्विविधोऽपि । तस्मादम्यसन्तु ध्यानं सुधियः सदाप्यपास्यालस्यं ॥ ३३ ॥ ' इनमेंसे आदिके तीन पद्य तो पञ्चास्तिकायकी नीचे उद्धृत तीन गाथाओंके संस्कृत रूपान्तर है धम्मादी सद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्ठा तव म्हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति ॥ १६० ॥ णिच्चयणयेण भणिदो तिहि तेहि समाहिदो हु जो अप्पा | कुर्ण किंचि वि अणं ण मुर्यादि सो मोक्खमग्गोत्ति ॥ १६१ ॥ जो चरदि णादि पिच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं । सो चारितं गाणं दंसणमिदि णिच्चिदो होदि ॥ १६२॥ तत्त्वानुशासनके रचयिताने यत्र तत्र कुछ शाब्दिक परिवर्तन कर लिया है किन्तु यह स्पष्ट है कि उनके उक्त तीन पद्य उक्त तीन गाथाओंको ही सामने रखकर रचे गये है और इसीलिये उन्हें आर्या छन्दोंमें रखागया है । इसी तरह चौथा पद्य द्रव्यसंग्रहकी नीचे लिखी गाथाको सामने रखकर रचा गया है । १. ' अन्यत्र' द्रव्य संग्रहादी मोभा श्रेष्ठयादि ज्ञातव्यम् - पञ्चास्ति ०टी०, पृ० ६

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