Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 369
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३५७ अध्याय हैं। किन्तु उनमें सूत्रोंकी संख्या क्रमसे १५ + १२ + १८+ ६ + ११ + १४ + ११ + ८+७+५=१०७ है। प्रायः अधिकांश सूत्र बड़े तत्त्वार्थ सूत्रके सूत्रोंके ही संक्षिप्त रूप है । यथा-प्रमाणे द्वे ।।६।।' 'नयाः सप्त ।।७।।' 'तैरधिगमस्तत्त्वानाम् ॥८॥' सदादिभिश्च ॥९॥ इत्यादि । बड़े तत्त्वार्थ सूत्रके प्रत्येक अध्यायका जो विषय है, प्रायः वही विषय इसका भी है। किन्तु तीसरे अध्यायके अन्तमें मनुष्योंका वर्णन करते हुए 'त्रिषष्ठि शलाकाः पुरुषाः' ॥१४॥ एकादश रुद्राः ॥१५॥ नव नारदाः ॥१६॥ चतुर्विशतिकामदेवाः ॥१७॥' इन सूत्रोंके द्वारा प्रेसठ शलाका पुरुष, ग्यारह रुद्र, नौ नारद और चौबीस कामदेवों को भी बतला दिया है । जैन मान्यतानुसार ये विशिष्ट पुरुष प्रत्येक उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालमें हुआ करते हैं । २४ तीर्थकर, नौ बलदेव, नौ नारायण नौ प्रतिनारायण और बारह चक्रवर्ती ये वेसठ शलाका पुरुष कहे जाते हैं । इसी तरह सातवे अध्यायमें 'श्रमणानामष्टाविंशतिर्मूलगुणाः ॥५॥ और श्रावकाणामष्टौ ॥६॥' इन दो सूत्रोंके द्वारा मुनियोंके २८ मूलगुणोंका और श्रावकोंके ८ मूलगुणोंका भी निर्देश कर दिया है। ये सब कथन बड़े तत्त्वार्थ सूत्र में नहीं है। रचयिता-इसके रचयिता वृहत्प्रभाचन्द्र कौन हैं और वे कब हुए हैं, यह जाननेका कोई साधन अभी तक उपलब्ध नहीं हो सका है। किन्तु इतना तो निश्चित रूपसे प्रतीत होता है कि बड़े तत्त्वार्थ सूत्रके पश्चात् ही उसीके अनुकरण पर यह तत्त्वार्थ सूत्र रचा गया है । बड़े तत्त्वार्थ सूत्रमें 'गुण पर्ययवद् द्रव्यम्' इतना ही सूत्र है किन्तु इस तत्त्वार्थ सूत्रमें 'सहक्रमभावि गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' इतना सूत्र है । जहाँ अन्य सूत्रोंका संक्षेपीकरण किया गया है वहाँ इस सूत्रमें वृद्धि कर दी गई है । इसमें गुणोंको सहभावी और पर्यायोंको क्रमभावी भी बतला दिया गया है। जहाँ तक हम जान सके है गुण और पर्यायोंको स्पष्ट रूपसे सहभावी और क्रमभावी सर्वप्रथम अकलंकदेवने अपन न्यायविनिश्चयमें बतलाया है यथा _ 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं ते सहक्रमवृत्तयः' और उक्त लक्षण इसीका अनुसरण करता जान पड़ता है। अतः उक्त लघु तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ता वृहत्प्रभाचन्द्र अकलंकदेवके पश्चात् होने चाहिये । किन्तु उनके पश्चात् भी अनेक प्रभाचन्द्र हुए है अतः उनमेंसे किसके द्वारा यह रचा गया है, विशेष प्रमाणोंके अभावमें यह कहना शक्य नहीं है। किन्तु प्रभाचन्द्रके साथ जो बृहत् विशेषण लगाया गया है, वह अवश्य ही किसी अन्य प्रभाचन्द्रसे निवृत्ति करके सूत्रकार प्रभाचन्द्रका महत्त्व व्यापन करनेके लिये लगाया गया प्रतीत होता है।

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