Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 374
________________ ३६२ : जैनसाहित्य का इतिहास गाथा ३५ की टीकामें बारह अनुप्रेक्षाओंका स्वरूप बतलाते हुए लोकानुपेक्षाके अन्तर्गत अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्वलोकका पूरा वर्णन दिया है जो प्राय: त्रिलोकसारका ऋणी है। उसमें त्रिलोकसारके नामोल्लेखके साथ ही साथ कई गाथाएँ भी उससे उद्धृतकी गई हैं । गाथा ४१ की टीकामें सम्यग्दर्शन और उसके २५ मलोंका विस्तृत कथन किया है। इसी तरह समस्त टीका सैद्धान्तिक विषयोंकी चर्चाओंसे भरी हुई है। गाथा ४२ की टीकाके अन्तमें उन्होंने लिखा है कि यदि इस सविकल्प और निर्विकल्प तथा स्व पर प्रकाश ज्ञानका व्याख्यान आगम, अध्यात्म और तर्कशास्त्रके अनुसार विशेषरूपसे किया जाये तो बड़ा विस्तार होता है और यह ग्रन्थ अध्यात्मशास्त्रका है अतः यहाँ विशेष व्याख्यान नहीं किया। इससे भी प्रकट होता है कि वह आगम और अध्यात्मके विशिष्ट अभ्यासी होनेके साथ ही साथ तर्कशास्त्रमें भी निपुण थे। गाथा ५० की टीकामें उन्होंने भट्ट चार्वाक (?) के द्वारा सर्वज्ञका निराकरण कराकर उसका खण्डन किया है। किन्तु वास्तवमें तो वह अध्यात्मरसिक थे। और अध्यात्म वर्णनकी उनकी शैली अमृतचन्द्रकी अनुगामिनी है। उसीके दर्शन द्रव्यसंग्रहकी टीकामें यथास्थान होते हैं। ___ इस टीकामें उद्धरण पद्योंकी बहुतायत है । अनेक पद्योंके स्थलोंका पता ज्ञात नहीं हो सका, फिर भी जो स्थल ज्ञात हो सके उनमें कुन्दकुन्दके ग्रन्थ, परमात्म प्रकाश, योगसार, मूलाचार, भगवती आराधना, इष्टोपदेश, यशस्तिलक, आप्तस्वरूप, त्रिलोकसार और तत्त्वानुशासनका नाम उल्लेखनीय है। गाथा ३४ की टीकामें पञ्चपरमेष्ठी और पञ्चनमस्कार नामक ग्रन्थोंका उल्लेख है । पञ्चनमस्कार नामक ग्रन्थको सिद्धचक्र आदि देवार्चनविधिरूप मंत्रवादसे सम्बद्ध बतलाया है । यथा "विस्तरेण पञ्चपरमेष्ठी ग्रन्थ कथित क्रमेण, अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनविधिरूपमंत्रवादसम्बन्धिपञ्चनमस्कार ग्रन्थे च'। गाथा ४९ की टीकामें पञ्चनस्कार ग्रन्थका परिमाण बारह हजार श्लोक जितना बतलाया है अतः यह कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होना चाहिये । रचनाकाल टीकाकार ब्रह्मदेवजीके सम्बन्धमें कहीं से कुछ ज्ञात नहीं होता। उनके १. 'इर्द तुव्याख्यानं यद्यागमाध्यात्मतर्कशास्त्रानुसारेण विशेषेण व्याख्यायते तदा महान् विस्तारो भवति । स चाध्यात्म शास्त्रत्वान्न कृत इति ।'

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