Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 363
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३५१ ग्रन्थोंका सारमात्र है तथा उसका विषयानुक्रम भी तत्त्वार्थ सूत्रके अनुसार ही है। किन्तु सिद्धान्तसार संग्रहमें तत्त्वार्थ सूत्र और उसके टीका ग्रन्थोंका ही सार नहीं है बल्कि कुछ अन्य विषयोंकी भी प्रासांगिक चर्चाएं हैं। तथा विषयानुक्रम भी भिन्न है । अतः तत्त्वार्थसारकी तरह उसका सिद्धान्तसार संग्रह नाम सार्थक है । किन्तु 'सिद्धान्तसार संग्रह' नाम केवल ग्रन्थको पुष्पिकाकोंमें ही पाया जाता है मूलग्रन्थमें नहीं। ग्रन्थका प्रारम्भ करते हुए तो ग्रन्थकारने 'तत्त्वार्थसंग्रह वक्ष्ये' लिखकर तत्त्वार्थ संग्रहको रचनेकी प्रतिज्ञा की है। और यथार्थ में वही ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय भी है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थमें कुछ अन्य विषयोंका भी समावेश कर देने पर उसका नाम सिद्धान्तसार संग्रह रख दिया गया, जो 'तत्त्वार्थ संग्रह' नामसे व्यापक अर्थको लिये हुए है। तत्त्वार्थसारकी तरह ही पूरा ग्रन्थ संस्कृत भापाके अष्टप श्लोकोंमें निबद्ध है । केवल प्रत्येक अध्यायके अन्तमें अन्य छन्दोंमें रचित संस्कृत पद्य दिये गये हैं। श्लोकोंकी रचना सरल और सुस्पष्ट है। विषयका प्रतिपादन भी सरल और सुस्पष्ट रीतिसे किया गया है। विषय परिचय समस्त ग्रन्थ बारह अध्यायोंमें विभाजित है। पहले अध्यायमें सम्यग्दर्शनका निरूपण है । सम्यग्दर्शनका लक्षण समन्तभद्रके रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी अनुकृति पर रचा गया प्रतीत होता है । यथा 'सदृष्टिज्ञानसद्वृत्तरत्नत्रितयनायकैः । कथितः परमो धर्मः कर्मकक्षक्षयानलः ॥३३॥ श्रद्धानं शुद्धवृत्तीनां देवतागमलिङ्गिनाम् । मौढ्यादिदोषनिर्मुक्तं दृष्टि दृष्टिविदो विदुः ॥३४॥ सि० सा० सं० । 'सदृष्टि ज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । त्रिमूढापोढमष्टागं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥४॥' र० श्रा० । ग्रन्थकारने अपने ग्रन्थके आदिमें स्वामी 'समन्तभद्रके वचनोंको भी मनुष्य १. 'श्रीमत्समन्तभद्रस्य देवस्यापि वचोऽनघम् । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुषत्वं तथा पुनः ॥११॥' अ० १। 'श्रीमत्समन्तभद्रादिगणेशः' 'श्रीमत्सामन्तभद्र वचनमिति बुधः । -अ० ९१ सि० सा० सं० ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411