Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 351
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३३९ इन गाथाओंमेंसे जीवका स्वरूप बतलाने वाली गाथा तो कुन्दकुन्दके प्रवचनसार अथवा समयसारसे संगृहीत है । पुद्गल द्रव्यके छ भेदोंको बतलाने वाली गाथा नं. ७ गोमट्टसार जीवकाण्ड (गा. ६०१ ) से ली गई प्रतीत होती है। द्रव्योंके स्वरूपको बतलाने वाली गाथा नं० ८, ९, १०, और ११ का पूर्वार्ष, तथा गा० १२, और १४ द्रव्य संग्रहमें भी पाई जाती हैं। शेष गाथाएँ भिन्न हैं। ब्रह्मदेवके अनुसार इसमें एक गाथा कम है। संभव है लत्रुद्रव्य संग्रह की प्राप्त प्रतिमें एक गाथा छूट गई हो। वृहद्रव्यसंग्रह वृहद्रव्य संग्रहकी कुन्दकुन्दाचार्यके पंचास्तिकायके साथ तुलना करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि पंचास्तिकायकी शैली और वस्तुको द्रव्यसंग्रहकारने अपनाया है और उसे लघु पंचास्तिकाय कहा जा सकता है । पंचास्तिकाय भी तीन अधिकारोंमें विभक्त है और द्रव्य संग्रहमें भो तीन अधिकार हैं। पंचास्तिकायके प्रथम अधिकारमें द्रव्योंका, दूसरेमें नौ पदार्थोका और तीसरे में व्यवहार और निश्चय मोक्ष मार्गका कथन है । द्रव्यसंग्रहके भी तीनों अधिकारों में क्रमसे यहो कथन है। किन्तु पंचास्तिकायमें जो सत्ता, द्रव्य, गुण, पर्याय सप्तभंगी आदिकी दार्शनिक चर्चाएं है, उनका द्रव्यसंग्रहमें अभाव है। असल में जैन तत्त्वों के प्राथमिक अभ्यासीके लिये उक्त दार्शनिक चर्चाएं दुरूह भी हैं। संभवतया इसीसे सोमश्रेष्ठीके लिये द्रव्य संग्रहको वनानेकी आवश्यकता हुई । द्रव्य संग्रहका रचयिता कुन्दकुन्दाचार्यके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वोंसे सुपरिचित प्रतीत होता है । उन्होंने निश्चय और व्यवहारनयसे ही प्रत्येक तत्त्वका निरूपण किया है। व्यवहारनयके किसी अवान्तर भेदका निर्देश तो द्रव्यसंग्रहमें नहीं है, किन्तु निश्चयके शुद्ध और अशुद्ध भेदका निर्देश अवश्य है। ग्रन्थका प्रारम्भ जीव और अजीव द्रव्यका कथन करने वाले भगवान ऋषभदेवके नमस्कारसे होता है । इससे ग्रन्थकारने ग्रन्थमें वक्तव्य विषयका भी निर्देश कर दिया है । दूसरी गाथासे जीव द्रव्यका कथन प्रारम्भ होता है। इसमें जीवको उपयोगमय, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेह परिमाण, भोक्ता, संसारी, मुक्त और स्वभावसे ऊपरको गमन करनेवाला बतलाया है। इस तरह इस गाथ। के द्वारा नौ अवान्तर अधिकारोंकी सूचना करके आगे इसी क्रमसे प्रत्येकका कथन निश्चय और व्यवहारनयसे किया है। पंचास्तिकाय गा० २७ में भी जीवको चेतयिता, उपयोगमय, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, शरीर प्रमाण, भमूर्तिक और कर्म संयुक्त बतलाकर तथा गाथा २८ में उनके मुक्त होने पर ऊपर जानेका कथन किया है । और आगे इन्हींका विस्तारसे कथन किया है। द्रव्यसंग्रहकारने भी

Loading...

Page Navigation
1 ... 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411