________________
५० : जनसाहित्यका इतिहास बाह्य पुष्करार्धमें भी ७२ चन्द्र मूर्य बतलाये हैं । तत्त्वार्थ वार्तिकमें भी ऐसा ही कथन है। किन्तु ति० ५० में पुष्कराध द्वीपके प्रथम वलयमें १४४ चन्द्र सूर्य बतलाये हैं । यह कथन वहाँ गद्यमें है ।
इसी तरह वैमानिक देवोंके वर्णनमें ति० ५० में ऋतु नामक विमानकी चारों दिशाओंमें ६२-६२ श्रेणीवद्ध बतलाये हैं और मतान्तरसे ६३-६३ बतलाये हैं । ह० पु० में ६३-६३ ही बतलाये हैं और तत्त्वार्थवातिकमें ६२-६२ ही बतलाये हैं। किन्तु प्रत्येक कल्पके विमानोंकी संख्यामे कोई अन्तर नहीं है। वैमानिक देवोंके वर्णनमें ह० पु० में सौधर्मादि स्वर्गों में विमानोंकी संख्या, उनका परिमाण, देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीव, लेश्या, अवधिका विषय, और देवोंके उत्पत्ति स्थानोंका कथन किया गया है प्रायः सब कथन ति० प० में हैं।
__इस तरह ह० प० के साथ ति० प० की तुलना करनेसे यह स्पष्ट है कि ह. पु० के कर्ताके सामने ति० प० थी और उन्होंने छठे सर्गके अन्तमें प्रज्ञप्ति नामसे उसका निर्देश भी किया है यथा-'ज्योतिर्लोकः प्रकट पटल स्वर्गमोक्षोवलोकः, प्रज्ञप्त्युक्तं नरवर मया संग्रहात् क्षेत्रमेवं' । उनके पश्चात् उसमें मेल किया गया है। उसमें जो गद्य भाग पाया जाता है उसकी स्थिति भी संदिग्ध प्रतीत होती है।
आगे अकलंक देवके तत्वार्थवातिकसे भी प्रकृत विषय पर प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया जाता है। तिलोयपण्णत्ति और तत्त्वार्थवातिक
तत्त्वार्थसूत्रके तीसरे और चौथे अध्यायमें जीवोंके निवासस्थानके रूपमें अधोलोक, मध्यलोक, और ऊर्ध्वलोकका सूत्रात्मक वर्णन है। अकलंकदेवने उसके आधार पर अपने तत्वार्थवातिकमें तीनों लोकोंका कुछ विस्तारसे कथन किया है । जिसका तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है
तत्त्वार्थवार्तिक ( १-२०)मे लोकको 'सुप्रतिष्ठक संस्थान' बतलाया है तथा ऊर्ध्वलोकको मृदंगाकार, अधोलोकको वेत्रासनके आकार और मध्यलोकको झल्लरीके आकार बतलाया हैं। तथा आगे नीचेसे ऊपर तक लोकका विस्तार हानि वृद्धिके साथ दिया है। ति०प०के प्रथम अधिकारमें न तो लोकको 'सुप्रतिष्ठक संस्थान कहा है और न मध्यलोकको झल्लरीके आकार बतलाया है। हाँ, लोकका विस्तार हानि वृद्धिके साथ जो दिया है वह तत्त्वार्थवार्तिकसे मेल खाता है। किंतु तवा में लोकको प्रतरवृत्त और चतुर्दशरज्जु आयाम मात्र बतलाया हैं। उत्तर-दक्षिण विस्तार उसमें नहीं बतलाया जैसा कि ति०प०में बतलाया है