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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ७९ कथन किया है। आगे परमाणुका स्वरूप बतलाकर उत्सेधांगुल, प्रमाणांगुल और आत्मांगुलका कथन है । फिर पल्य आदि प्रमाणोंका कथन है।
गा० ४४ से सर्वज्ञ की सिद्धि की गई है और सर्वज्ञके वचनको प्रमाण बतलाया है । तथा प्रमाणके प्रत्यक्ष परोक्षादि भेदोंका कथन करते हुए मति ज्ञानके भंद प्रभेदोंका तथा श्रुतज्ञानका कथन किया है। तथा 'वक्ताको प्रमाणतासे वचनोंमें प्रणाणता होती है' इस कथनके समर्थनमें वक्ता अरहन्त देवकी विशेषताओंका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है । ( गा० ८४-१३७ )।
उक्त कथनके साथ ही जम्बूद्वीप पण्णत्तिका कथन समाप्त हो जाता है और उसके पश्चात् ग्रन्थकारने अपनी गुरु परम्परा वगैरहका कथन किया है । संक्षेपमें यह ग्रन्थका विषय परिचय है। तुलना तथा आधार
जैसा प्रारम्भमें कहा गया है कि ग्रन्थकारने आचार्य परम्परासे आगत ग्रन्थार्थ का उपसंहार करके इस ग्रन्थकी रचना की है। किन्तु यह तो सामान्य कथन है जो प्रायः ग्रन्थकारोंके द्वारा अपने ग्रन्थका प्रामाण्य बतलानेके लिये किया जाता है। ग्रन्थकी अन्य ग्रन्थोंके साथ तुलना करनेसे प्रकट होता है कि ग्रन्थकारने अपने पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोंका उपयोग इस ग्रन्थमें किया है जिसका खुलासा संक्षेपमें इस प्रकार है-तिलोयपण्णत्तिसे इसकी रचना शैली बिल्कुल मिलती है। जैसे ति० ५० के प्रारम्भमें पांच गाथाओंके द्वारा पांचों परमेष्ठियोंका स्मरण करके छठी गाथाके द्वारा ति० प० को कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है, वैसे ही जम्बूद्वीप०के प्रारम्भमें पांच गाथाओंके द्वारा पांचों परमेष्ठियोंका स्मरण करके छठी गाथाके द्वारा उन्हें नमस्कार करते हुए द्वीप सागर पण्णत्तिको कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है। अन्तर केवल इतना है कि ति० ५० में पहले सिद्धोंका स्मरण करके तब अरहन्तोंको स्मरण किया है और जं०डी० प० में पहले अरहन्तोंको स्मरण करके तब सिद्धोंको स्मरण किया गया है ।
ति० प० में अधिकारके अन्तमें ऋषभ देवको और शेष सात अधिकारोंके आदि तथा अन्तमें क्रमसे एक एक तीर्थङ्करको नमस्कार करते हुए शेष सब तीर्थङ्करोंको अन्तिम अधिकारमें नमस्कार किया है। जं० डी० प० में पहले उद्देशको छोड़कर शेष बारह उद्देशोंके आदि और अन्तमें एक एक तीर्थङ्करको क्रममे नमस्कार किया गया है।
जं. द्वी० १० की विषय प्रतिपादन शैली भी ति० प० की समान है। तथा ति० ५० की बहुतसी गाथाएँ यत्किञ्चित् परिवर्तनके साथ जं० द्वी०प० में वर्तमान हैं। उदाहरणके लिये ति० प० के प्रथम अधिकारमें मानका कथन