Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 333
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका - साहित्य : ३२१ 'न कदाचिदस्मात् परतो जन्मतः संहरणतो वा चारणविद्यावद्धि प्राप्ता अपि मनुष्या भूतपूर्वा भवन्ति भविष्यन्ति च ।' अन्यत्र समुद्वातोपपाताम्पामत एव च मानुषोत्तर इत्युच्यते ।' अर्थात् — इस मानुषोत्तर पर्वतसे आगे जन्म अथवा हरणकी अपेक्षा चारण ऋद्धि और विद्याधर ऋद्धिके धारी भी मनुष्य न कभी पहले हुए, न वर्तमानमें होते हैं और न भविष्य में होंगे । समुद्घात और उपघात अवस्थाको छोड़कर । इसीसे इसे मानुषोत्तर कहते हैं।' इसका अर्थ गणिजीने इस प्रकार किया है.' इस मानुषोत्तर पर्वतसे आगे किसी भी कालमें मनुष्य न उत्पन्न होते हैं, न उत्पन्न होंगे, और न उत्पन्न हुए हैं । इसीसे इसे मानुषोत्तर कहते हैं । तथा संहरणकी अपेक्षा भी ( मानुषोत्तर से आगे ) मनुष्य नहीं हैं । "अवश्य ही मनुष्यको मानुषोत्तर पर्वतके इस ओर ही मरना चाहिये । तथा चारण और विद्याधर ऋद्धि प्राप्त भी मनुष्य मानुषोत्तरको लाँघकर जानेपर उधर नहीं मरते ऐसा नियम करते हैं । मानुषोत्तरसे बाहर उनके जानेका निषेध नहीं करते हैं । तपोविशेषके अनुष्ठानसे जंघाचारी और विद्याचारी मुनि चैत्यवन्दनाके लिये नन्दीश्वर आदि द्वीपोंको जाते हैं । आवश्यक आदिमें यह विधि प्रसिद्ध है । तथा विद्याधर महाविद्या सम्पन्न और विक्रिया आदि ऋद्धिधारी सब मानुषोत्तर से बाहर जाते हैं, किन्तु मरते नहीं है । मारणान्तिक समुद्घातसे युक्त कोई अढ़ाई द्वीपका वासी जो मानुषोत्तर पर्वत से बाहरके द्वीपसमुद्रोंमें उत्पन्न होगा, वह उत्पत्ति प्रदेश तक जाकर वहाँ मरता है तथा बाहरके द्वीप समुद्रोंका वासी कोई प्राणी, जिसने मनुष्यायुका बन्ध किया है और जो मरकर अढ़ाई द्वीपके भीतर वक्र गतिसे उत्त्पन्न होगा उसके मनुष्यायुका उदय वक्र कालमें होता है । इस तरह समुद्घात और उपपातको छोड़कर अन्य प्रकारसे मानुषोत्तर पर्वतके बाहर मनुष्योका जन्म और मरण नहीं होता ।' इस तरह गणिजीने आगमकी रक्षा करनेके लिये भाष्य में अनुक्त वातको भाष्य मत्थे मढ़ दिया है । भाष्यमें मरणकी तो कोई बात ही नहीं है । उसका तो स्पष्ट कथन है मानुषोत्तरसे बाहर कोई भी मनुष्य नहीं जा सकता चाहे वह ऋद्धिधारी ही क्यों न हो । समुद्घात और उपपादकी अपेक्षा ही मानुषोत्तरसे बाहर मनुष्य पाया जा सकता है।' इसीसे गणिजीने आगे लिखा है - 'जो इस भाष्यको चारण और विद्याधर ऋद्धि प्राप्तोंके मानुषोत्तरसे बाहर जानेका निषेधक बतलाते हैं उनका कथन आगमविरोधी है।' इस तरह गणिजीने आगमकी रक्षाके उद्देश्यसे भाष्यका अर्थ विपरीत भी किया है । १ 'ये त्वेतद् भाष्यं गमनप्रतिषेधद्वारेण चारणविद्याधरद्धिप्राप्तानामचक्षते तेषामागमविरोधः ' - भा० १, ० २६३ । २१

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