Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 332
________________ ३२० : जेनसाहित्यका इतिहास उद्देश्यसे भाष्यके अर्थका विपर्यास भी किया है। इसके दो उदाहरण नीचे दिये जाते हैं १. तत्त्वार्थ भाष्य (९३१) में लिखा है-'मतिज्ञानादिषु चर्तुषु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । सम्भिन्नशानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलजाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति ।' अर्थात् 'मतिज्ञान आदि चारों ज्ञानोंमें तो पर्यायसे (क्रमसे) उपयोग होता है, एक साथ नहीं। किन्तु सर्वद्रव्य पर्यायोंको ग्रहण करने वाले केवली भगवानके निरपेक्ष ( इन्द्रियादिकी अपेक्षासे रहित ) केवल ज्ञान और केवलदर्शनमें अनु समय उपयोग होता है। यहाँ सिद्धसेनजी ने अनु'समय अर्थमें खींचा तानी करके 'वारंवार उपयोग' होता है ऐसा अर्थ किया है क्योंकि श्वे. बागमोंमें केवल ज्ञान बोर केवल दर्शन का उपयोग भी क्रमसे माना है। किन्तु यदि भाष्यकारको केवल ज्ञान और केवल दर्शनका उपयोग भी मतिज्ञानादिकी तरह 'पर्यायेण' इष्ट होता तो वह 'समन्ततो ज्ञानदर्शनस्य तु' इत्यादि न लिखते है । अतः 'अनुसमय' का अर्थ प्रति समय ही होना चाहिये। ___ सम्भवतया गणिजी भी इस बातको समझते थे। क्गोंकि उन्होंने आगे लिखा है-'यद्यपि केचित् पण्डितम्मन्याः, सूत्राण्यन्यथाकार अर्थव्याचक्षते तर्कवलानुबिडबुद्धयो बारंबारेणोपयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणभाग यतः आम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेणोपयोगं प्रतिपादयन्ति ।' ___ अर्थात्-यद्यपि कुछ पंडिताभिमानी तर्कके बलसे सूत्रोंका अर्थ अन्य प्रकार से करते हैं और कहते हैं बारवार उपयोग नहीं होता। किन्तु उसे हम प्रमाण नहीं मानते; क्योंकि आगममें बहुतसे सूत्र वारंबार उपयोगको कहते हैं ।' तर्कवलानुविद्धबुद्धयः' से उनका संकेत सिद्धसेन दिवाकरकी ओर हो सकता है क्योंकि उन्होंने अपने सन्मति तकमें केवलीके बारंवार उपयोगका तर्क के अधारसे खण्डन किया है । भाष्यकार भी युगपदुपयोगवादी प्रतीत होते हैं । २. सूत्र ( ३.१३ ) के भाष्यमें लिखा है १. 'अनुगतः-अव्यवहितः समकः-चत्यन्ताविभागागः कालो यत्र कालसन्ताने स काल सन्तानोऽजुसमयस्तमनुसमयकालसन्ताननुपयोगेः भवति'-सि० ग. टी०, भा० १, पृ० ११०-१११ ।

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