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१७८ : जैनसाहित्यका इतिहास
पडिकमणं पडिसरणं परिहरणं धारणा णियत्ती य । जिंदा गरुहा सोहि य अट्टविहो होदि विसकुंभो ॥ अपडिक्कमणं अप्पडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव ।
अणियत्ती य अणिदा अगरहा विसोहि य अमयकुंभो ।। ये दोनों गाथाएँ ऊपर उद्ध त गाथाओंको लक्ष्यमें रखकर रची गई हैं, यह स्पष्ट प्रतीत होता है । अमृतचन्द्र इस बातसे अभिज्ञ थे। इससे प्रकट होता है कि अमृतचन्द्राचार्यको समयसार आदि ग्रन्थोंका कितना साधार परिज्ञान था।
समय-यह हम ऊपर लिख आये हैं कि अमृतचन्द्रने अपने विषयमें कुछ भी नहीं लिखा और न अन्यत्रसे उनके सम्बन्धमें कोई जानकारी प्राप्त होती है । अतः उनकी टीकाओंमें उद्धृत पद्योंके द्वारा तथा अन्य ग्रन्थोंमें पाये जानेवाले उनके पद्य आदिके आधारपर कई विद्वानोंने उनका समय निर्णीत करनेका प्रयत्न किया है।
१. विक्रम सम्बत् १३०० में रचकर पूर्ण हुई अनगारधर्मामृतको टीकामें पं० आशाधरने ठक्कुर अमृतचन्द्रविरचित समयसार टीकाका उल्लेख किया है। तथा उनके पुरुषार्थ सि० से एक पद्य भी उद्ध त किया है। अतः यह निश्चित है कि अमृतचन्द्र आशाधरसे पहले हुए हैं ।
२. श्रीयुत प्रमजीने लिखा है कि शुभचन्द्रने ज्ञानार्णव (पृ० १७७) में अमृतचन्द्रके पुरुषार्थ सिद्धयुपायका 'मिथ्यात्व वेदराग' आदि पद्य उक्तञ्च' रूपसे उद्धत किया है । इसलिये अमृतचन्द्र शुभचन्द्र मे भी पहले के हैं। और पद्मप्रभ मलधारिदेवने नियमसार टीकामें (पृ० ७२) शुभचन्द्र के ज्ञानार्णवका एक श्लोक (४२, ४) उचत किया है । इसलिए शुभचन्द्र पद्मप्रभसे पहलेके हैं । प्रेमीजीने पद्मप्रभका समय विक्रम की बारहवीं सदी का अन्त और तेरहवीं सदी का प्रारम्भ बतलाया है । तथा शुभचन्द्रके ज्ञानार्णवका रचना काल विक्रमकी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी अनुमान किया है । अतः अमृतचन्द्र उससे पहले हुए हैं यह निश्चित है।
१. प्रव० सा० की प्रस्ता० (डॉ० उपाध्ये) पृ० १००-१०१ । अनेकान्त, वर्ष
८, कि० ४-५, पृ० १७३-१७५ । तया जै० सा० इ०, पृ० ३०९-३१३ । २. 'एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृतचन्द्रविरचितसमयसारटीकायाँ दृष्टव्यम्:
अन० ५० टी०, पृ० ५८८ । ३. जै० सा० इ०, पृ० ३१० । ४. जै० सा० इ०, पृ० ४०६ ।