Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 318
________________ ३०६ : जैन साहित्यका इतिहास जो आत्माको मानते हैं। प्रथम विभागमें बौद्ध दर्शनको और दूसरे विभागमें वैशेषिक और सांख्य दर्शनको लिया गया है और उनकी समीक्षा की है। ६. सूत्र १-११ के अन्तर्गत 'इन्द्रियोंके व्यापारसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष है और उनके बिना होने वाला ज्ञान परोक्ष है। ऐसा माननेवालोंका निरास किया है। इसी सूत्र के अन्तर्गत सर्वार्थसिद्धिमें भी यह प्रश्न उठाकर उसका निराकरण किया गया है। किन्तु तत्त्वार्थवार्तिकमें अकलंकदेवने पूर्वपक्षके समर्थनमें दिग्नागके प्रमाण समुच्चय, न्यायसूत्र, वैशेषिकसूत्र, मीमांसादर्शन आदि से प्रमाण उद्धृत किये हैं और फिर उनकी समीक्षाका प्रधान लक्ष्य दिग्नागका प्रमाण समुच्चय है। उसीके 'कल्पनापोढं प्रत्यक्षम्' की आलोचना यहाँ प्रधान रूप से की गई है। इस प्रकरणमें बसुबन्धुके अभि धर्मकोश से भी कारिका (११३२ तथा १।१७) उद्धृत की गई है। ७. सूत्र १-१९ में चक्षुके प्राप्यकारित्वका तथा श्रोत्रके अप्राप्यकारित्वका निराकरण किया गया है । न्याय-वैशेषिक दर्शन चक्षुको प्राप्यकारी मानते हैं और बौद्ध दर्शन श्रोत्रको अप्राप्यकारी मानता है । ८. सूत्र १.२० के अन्तर्गत न्यायसूत्र ११११५ में निर्दिष्ट अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट भेदोंका तथा उपमान, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव नामक परकल्पित प्रमाणोंका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानमें बतलाया है। ९. सूत्र २-८ में आत्माको न मानने वालोंके 'आत्मा नहीं है क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है। जैसे खर विषाण (गधे के सींग) तथा आत्मा नहीं है क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता' इन दोनों हेतुओंका निराकरण करके आत्माका अस्तित्व सिद्ध किया है । इतना ही नहीं, युक्तिजालसे खरविषाणका भी अस्तित्व सिद्ध किया है जो उस समय की ताकिक प्रणाली पर अच्छा प्रकाश डालता है। १०. सूत्र ४-४२ के अन्तर्गत एक को अन्य विविध युक्तियोंसे अनेकात्मक सिद्ध करके सप्तभंगीका विवेचन बहुत विस्तार से किया गया है। सूत्र १-६ के अन्तर्गत तो वस्तुकी स्वात्मा और परात्माका विश्लेषण विशेष रूप से किया गया है। किन्तु यहाँ सप्तभंगीके सकलादेश और विकलादेश भेद करके प्रमाण सप्तभंगी और नयसप्तभंगीका पृथक्-पृथक् कथन किया है। तथा प्रमाण सप्तभंगीका कथन करते हुए सप्तभंगीके प्रत्येक उदाहरणात्मक वाक्यके प्रत्येक पदकी समीक्षा करते हुए उसकी आवश्यकता सिद्ध की है। यथा 'स्यादस्त्येव जीवः' इस उदाहरणात्मक वाक्यमें आगत 'स्यात्' अस्ति, एव, और जीव पदों में से प्रत्येकके अभावमें क्या-क्या विप्रतिपत्तियाँ उत्पन्न होती है इसका विश्लेषण करके प्रत्येक पदका साफल्य बतलाया है । सप्तभंगीका यह विवेचन उससे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें अन्यत्र नहीं पाया जाता।

Loading...

Page Navigation
1 ... 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411