Book Title: Jain Sahitya ka Itihas 02
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 321
________________ तत्त्वार्थविषयक टीका-साहित्य : ३०९ कारने किया है और अकलंकदेवने उसके उत्तरमें कहा है कि व्याख्या प्रज्ञप्ति दण्डकमें ऐसा कहा है-विजयादिके देव मनुष्यभव प्राप्त करके कितनी बार विजयादिमें जाते आते हैं ऐसा गौतमके पूछनेपर भगवानने कहा बागमनकी अपेक्षा कमसे कम एक भव और उत्कृष्टसे गमनागमनकी अपेक्षा दो भव धारण करते हैं।' पांचवें अंग ग्रन्थका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है। श्वेताम्बर परम्परामें वह वर्तमान है और भगवती सूत्रके नामसे प्रसिद्ध है। उसमें भगवान महावीर और उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरके मध्यमें हुए प्रश्नोत्तरोंका संग्रह है। और उक्त दोनों उल्लेख रूपान्तरसे उसमें पाये भी जाते हैं । हम नहीं कह सकते कि अकलंकदेवने व्याख्याप्रज्ञप्ति नामसे उसीका उल्लेख किया है अथवा इस नामका कोई अन्य अंगग्रन्थ उनके सामने उपस्थित था । ८. तत्त्वार्थ सूत्रका तीसरा चौथा अध्याय लोक रचनासे सम्बद्ध है। सर्वार्थ सिद्धिमें सूत्रोक्त बातोंका वर्णन परिमित शब्दोंमें किया गया है। किन्तु तत्त्वार्थ' वार्तिकमें विस्तारसे वर्णन है और वह लोकानुयोग विषयक उपलब्ध साहित्यमें पाये जाने वाले वर्णनसे विशिष्ट भी हैं । उसके तुलनात्मक अध्ययनसे ज्ञात होता है कि अकलंक देवके सामने लोकानुयोग विषयक जो साहित्य था, वह आज उपलब्ध नहीं है। उसके अनेक कथन तिलोयपण्णतिसे मेल नहीं खाते, किन्तु तिलोयपण्णतिमें जो लोक विनिश्चिय आदि ग्रन्थोंके मतान्तर दिये हैं, उनसे मेल खाते हैं। __तथा, अकलंक देवने जो दो एक गाथाओंका संस्कृत रूपान्तर इस प्रसंगमें दिया है उसका मूल भी उपलब्ध साहित्यमें नहीं मिलता। अस्तु, तीसरे अध्यायके सूत्र दो, छ, १०, ११, २२, ३२, ३५, ३६ और ३८ की तथा चौथे अध्यायके सूत्र १२, १३, १९, २२ की व्याख्याएं दृष्टव्य हैं। तीसरे अध्यायके १०वे सूत्रकी व्याख्याके अन्तर्गत मनुष्यलोकका वर्णन विस्तारसे दिया है। तथा चौथे अध्यायके १२वें सूत्रकी व्याख्याके अन्तर्गत स्वर्गलोकका वर्णन विस्तारसे दिया है। ९. अध्याय ६, ७, ८ में यत्र तत्र सूत्रोंकी व्याख्याओंमें अनेक आगमिक उपयोगी चर्चाएं चचित हैं। १०. अध्याय नौ के सूत्र ६ के अन्तर्गत, आठ शुद्धियोंका, सूत्र १ में चौदह गुणस्थानोंके स्वरूपका, सूत्र ७ में धर्मानुप्रेक्षाका वर्णन करते हुए मार्गणास्थानोंमें जीवस्थानों और गुणस्थानोंका, सूत्र ९ में वाईस परीषहोंका, सूत्र ३६ में विपाकविचय धर्मध्यानका, अच्छा वर्णन है।

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