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तत्त्वार्थविषयक मूल साहित्य : २२५
आत्मासे दर्शन भिन्न ठहरता है ॥१६२॥ अतः व्यवहारनयस जैसे ज्ञान और आत्मा पर प्रकाशक हैं वैसे ही दर्शन भी परप्रकाशक हैं ॥१६४।। तथा निश्चयनयसे ज्ञान और आत्मा स्वप्रकाशक है अतः दर्शन भी स्वप्रकाशक है। इस तरह ज्ञान, दर्शन और आत्मामें निश्चयनय और व्यवहार नयस भेदाभेदका कथन किया है।
आगे पुनः कहा है-यदि कोई ऐसा कहता है कि केवली भगवान आत्मस्वरूपको जानते हैं, लोकालोकको नहीं जानते तो इसमें क्या दोष है ॥१६६।। इसका उत्तर देते हुए कहा है कि-'जो मूर्त अमूर्त, चेतन अचेतन, स्व और पर, सबको जानता है, वही ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है ॥१६७।।
पुनः शंका की है कि यदि कोई ऐसा कहता है कि केवली भगवान लोकालोकको जानते हैं, अपनेको नहीं जानते, तो इसमें क्या दोष है ।।१६९। इसके उत्तरमें कहा है कि-ज्ञानस्वरूप जीव है इसलिये आत्मा निश्चयसे आत्माको जानता है। यदि वह आत्माको नहीं जानता तो ज्ञान आत्मासे अलग ठहरता है ।।१७०।। अतः आत्मा ज्ञान है और ज्ञान आत्मा है । इसलिये ज्ञान और दर्शन दोनों स्वपर प्रकाशक हैं ॥१७॥
केवलज्ञानी इच्छापूर्वक नहीं जानते देखते, न इच्छापूर्वक चलते-फिरते और बोलते हैं। इसलिये उनकी ये क्रियाएँ बन्धकी कारण नहीं हैं ॥१७२-१७५॥ जब केवलीके आयुकर्मका क्षय होता है तो शेष कर्मोंका भी क्षय हो जाता है । उसके पश्चात् वे शीघ्र ही एक समयमें लोकके अग्रभागमें जाकर स्थिर हो जाते हैं ॥१७६॥
गाथा १७७ से १८३ तक निर्वाणका कथन है। निर्वाण जन्म जरा और मरणसे रहित है । अक्षय और अविनाशी है, पुण्य पाप और पुनरागमनसे रहित है। वहाँ आत्मामें केवलज्ञान, केवलसुख, केवलवीर्य, केवलदर्शन, तथा अमूर्तिकत्व और सप्रदेशत्व रहते हैं।
जहाँ तक धर्मद्रव्य है वहीं तक जीव और पुद्गल जा सकते हैं । अतः मुक्त जीव लोकके अग्रभाग तक जाकर ही ठहर जाता है।
दसण पाहुड-दसण पाहुण या दर्शन प्राभृतमें ३६ गाथाएं हैं। इसमें सम्यग्दर्शनका वर्णन है। व्यवहारनयसे जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। और निश्चयनयसे आत्माका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन । ( गा० २० ) यह सम्यग्दर्शन मोक्षकी पहली सीढ़ी है ॥२१॥ जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है। उसे निर्वाणकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥३॥ सम्यग्दर्शनसे