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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ६९ उवरिखिइठिइविसेसो सगपयरविभाग इत्थ संगुणिओ।
उवरिमखिइठिइसहिओ इच्छियपयरम्मि उक्कोसा ॥२३८॥ संस्कृतमें एक इसी प्रकारका करणसूत्र तत्त्वार्थवातिकमें दिया है जो उक्त गाथाकी छाया-सा जान पड़ता है
'उपरिस्थितेविशेषः स्वप्रतरविभाजितेष्ट-संगुणितः । __ उपरिपृथिवीस्थितियुतः स्वेष्टप्रतरस्थितिमहती ।।'-(पृ० १६८) अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिकके तीसरे अध्यायमें और भी इस प्रकारके प्रमाण उद्धृत किये हैं जो प्राकृत गाथाओंकी छायारूप जान पड़ते हैं, किन्तु उनके मूलका पता नहीं चलता। संभव है उक्त संस्कृत छाया भी उसी ग्रन्थ पर से संगृहीत की गई हों, जिस परसे अन्य प्रमाण संस्कृत छाया रूपमें संकलित किये गये हैं।
इस तरह संग्रहणीमें बहुत-सी गाथाएँ ग्रन्थकारोंसे संगृहीत की गई है। इसीसे उसकी रचना उतनी सुसम्बद्ध और सुगठित प्रतीत नहीं होती। नेमिचन्द्रकृत त्रिलोकसार
गोम्मटसारके रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ही त्रिलोकसार नामक ग्रन्थके रचयिता हैं । गोम्मटसारकी तरह त्रिलोकसारकी अन्तिम गाथामें भी उन्होंने अपनेको अभयनन्दिका वत्स्य ( शिष्य ) बतलाया है। तथा उसीकी तरह प्रथम मंगलगाथामें नेमिचन्द्रको नमस्कार किया है। नेमिचन्द्र गंगवशी नरेश राचमल्लके सेनापति और मंत्री चामुण्डरायके समकालीन थे। चामुण्डराय के लिए ही उन्होंने गोम्मटसारकी रचना की थी।
त्रिलोकसारकी प्रथम गाथामें नेमिचन्द्रका विशेषण 'वलगोविन्द सिंहामणि किरणकलावरुणचरणणह किरणं' दिया है। जिसका सारांश यह है कि बलदेव
और गोविन्द ( कृष्ण ) नेमिनाथ तीर्थंकरको नमस्कार करते थे। किन्तु टीकाकार माधवचन्द्र ने, जो नेमिचन्द्रके शिष्य और उनके समकालीन थे, उक्त गाथाका एक व्याख्यान यह भी किया है कि चामुण्डराय अपने गुरु नेमिचन्द्रा१. संस्कृत टीकाके साथ त्रिलोकसार माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बईसे और पं०
टोडरमल रचित ढुढारी भाषामें लिखी हुई टीकाके साथ हिन्दी जैन साहित्य
प्रसारक कार्यालय बम्बई से प्रकाशित हुआ है। २. 'इदि णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण ।
रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ॥१०१८॥-त्रि० सा० । ३. 'विमलतरश्च स चासो नेमिचन्द्राचार्यश्च विमलतर नेमिचन्द्रस्तं नमस्यामीति
चामुण्डरायः स्वगुरुनमस्कारपूर्वकं शास्त्रमिदं प्रारभते ।""। बलश्चामुण्डरायः गां पृथ्वी विंदति पालयतीति गोविंदो राचमल्लदेवः ।।
-त्रि० सा० टी०, गा० १ ।