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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ५१ है। ति०प० ( २-२५ )में स्पष्ट लिखा है कि अधोलोक पूर्व-पश्चिम दिशामें वेत्रासनके आकार है और उत्तर-दक्षिण लम्बा है। तत्त्वार्थवार्तिकमें केवल वेत्रासनकार अधोलोक बतलाया है दिग्भागका उल्लेख वहाँ नहीं है।
अधोलोकके वर्णनमें सातों पृथिवियोंका बाहुल्य ति०प० ( २-२२ )के अनुकल है। गाथा २३में जो अन्य मत दिया है वह दिगम्बर साहित्यमें अन्यत्र नहीं मिलता। विलोंकी संख्या, प्रमाण वगैरह भी तुल्य है। किन्तु ति०प० (२-२९ )में पांचवीं पृथिवीके तीन बटे चार बिलें उष्ण और चतुर्थाश बिलें शीत बतलाये हैं जबकि त०वा० (पृ० १६४ ) में दो भाग बिलें उष्ण, एक भाग शीत बतलाये हैं। इसी तरह नरकोंका बाहुल्य बतलानेके लिए तत्त्वा०वा० ( पृ० १६३ )में दो गाथाओंकी संस्कृत छाया दी है। वे गाथाएं किस ग्रन्थ की हैं यह ज्ञात नहीं हो सका । नरकोंमें स्थिति तो ति०प०के अनुकूल ही बतलाई हैं । किन्तु शर्करा प्रभा आदि पृथिवियोंके प्रत्येक पटलमें आयुका प्रमाण लानेके लिए जिस करण सूत्रकी संस्कृत छाया दी है वह ति०प०से भिन्न हैं। उसकी मूल गाथा वृहत्संग्रहणीमें संगृहीत है । कौन जीव किस नरक तक उत्पन्न होता है यह कथन दोनोंमें समान हैं । किन्तु नरकसे निकलकर मनुष्य तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंकी अभ्युन्नतिका जो कथन है उसमें सातवें नरकसे निकलने वालोंके सम्वन्धमें अन्तर है। ति०प०के अनुसार ऐसे जीव सम्यग्दृष्टि हो सकते हैं और तत्त्वार्थवार्तिकमें उसका स्पष्ट निषेध है ।।
मध्यलोकके वर्णनमें त०वा में जम्बूद्वीपका वर्णन विस्तारसे किया है । ति०प०में जम्बूद्वीपमें वेदिकाका वर्णन बहुत विस्तृत है, त०वा में बहुत संक्षिप्त है । जो है वह ति०प०के अनुकूल है। विजयाध पर्वतका वर्णन भी प्रायः समान है।
त०वा में (पृ० १७३-१८१ ) विदेह क्षेत्रका वर्णन बहुत विस्तारसे किया गया है। उसीमें मेरु पर्वतका भी विस्तृत वर्णन है । यह वर्णन जहाँ ति०प०से मिलता है वहाँ कुछ अन्तरको भी लिये हुए है। सुमेरु पर्वतके ऊपर पाण्डुक वनमें स्थित पाण्डुक आदि शिलाओंका जो विस्तार 'त०वा०में बतलाया है, ति० प० (४।गा० १८२१) के अनुसार वह सगायणी आचार्यका मत है। इसी
१. 'ताः एताश्चतस्रोऽपि पञ्चयोजनशतायामतदर्ध विष्कम्भाश्चतुर्योजन बाहुल्याः'
-त०वा० पृ० १८० चउजोयण उच्छेहं पणसयदीहं तदद्धविस्तारं । सग्गायणि आइरिया एवं भासंति पंडुसिलं ॥१८२१॥-ति प० ४ ।