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भूगोल- खगोल विषयक साहित्य : ६३
बृहत्' क्षेत्र समास
टीकाकारने अपनी टीकामें इस ग्रन्थका नाम क्षेत्र े समास बतलाया है और ग्रन्थकारने इसे 'समय' क्षेत्र समास' नाम दिया है । उसकी व्युत्पत्ति करते हुए टीकाकारने लिखा४ है— 'सूर्यके गमनकी क्रियासे उपलक्षित अत्यन्त सूक्ष्म काल विशेषको समय कहते हैं । और उससे उपलक्षित क्षेत्रको समय क्षेत्र कहते हैं । वह समय क्षेत्र मनुष्यलोक है क्योंकि मनुष्य क्षेत्रसे बाहर सूर्यकी गमन क्रियासे उपलक्षित कोई कालविशेष नहीं है' । आशय यह है कि इसमें मनुष्यलोक सम्बन्धी द्वीप समुद्रोंका ही कथन है अतः ग्रन्थकारने इसका सार्थक नाम 'समय क्षेत्र समास' रखा है । किन्तु यह वृहत्क्षेत्र समासके नामसे प्रसिद्ध है । मुद्रित पुस्तकमें इसे यही नाम दिया गया है ।
वृहत्क्षेत्र समास ग्रन्थमें पाँच अधिकार हैं - १ जम्बूद्वीपाधिकार, २ लवणाब्यधिकार, ३ धातकी खण्ड द्वीपाधिकार, ४ कालोदधि अधिकार और ५ पुष्कर वरद्वीपार्धाधिकार । इनमें क्रमसे ३९८ + ९० + ८१ + ११ + ७६ ६५६ गाथाएँ | किन्तु पांचवें अधिकारकी ७५ वीं गाथामें ग्रन्थकारने स्वयं क्षेत्र समास प्रकरणकी गाथा संख्या ६३७ बतलाई है । और टीकाकार मलयगिरिने भी अपनी टीकामें गाथाओंका परिमाण ६३७ ही बतलाया है । किन्तु मुद्रित प्रतिके पादटिप्पण में लिखा है कि अन्य प्रतिमें 'पणपन्ना हुंति इत्थ नत्थम्मि' ऐसा पाठान्तर पाया जाता है । अन्तिम गाथाको न गिनने पर गाथा संख्या ६५५ बैठती है । अतः पाठान्तर के अनुसार गाया परिमाण ठीक बैठता है ।
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प्रथम जम्बूद्वीपाधिकारमें जम्बूद्वीपमे लेकर अन्तिम स्वयम्भू रमण पर्यन्त सब द्वीप समुद्रोंका प्रमाण अढाई उद्धार सागरोंके समयोंकी संख्या के बराबर बतलाकर अढाई द्वीप और दो समुद्रोंको ममुष्य क्षेत्र बतलाया है तथा उसका विस्तार पैता - लीस लाख योजन, जिसमें जम्बूद्वीपकी परिधि, जगती, भरतादिक सात क्षेत्रों और हिमवदादि षट् कुलाचलोंका विस्तार आदि उनका वाण जीवा धनुः, क्षेत्रफल घनफल आदि, वैताढ्यपवर्तका विस्तारादि, नदियोंका विस्तारादि, हैमवत आदिमें
१. वृहत् क्षेत्र समास, मलयगिरिकी संस्कृत टीकाके साथ जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगरसे प्रकाशित हुआ है ।
२. ' विवृणोमि यथाशक्ति क्षेत्रसमासं समासतः स्पष्टम् ।'
३. 'समयक्खेत्तसमासं वोच्छामि गुरुवरमेण ॥ १ ॥ | '
४. 'समय क्षेत्र समासं' समयः सूर्यगमनक्रियोपलक्षितः परमनिरुद्धः कालविशेषः तदुपलक्षितं क्षेत्र समयक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमिति । न हि मनुष्यक्षेत्राद्वहिः सूर्यगमनक्रियोपलक्षितो नाम कोऽपि कालोऽस्ति । - वृ० क्षे०, स०, पृ० १ ।