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६६ : जैनसाहित्यका इतिहास दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थोंमें तिलोयपण्णत्तिके अनुसार कथन है और श्वेताम्बर परम्पराके ग्रन्थों में वृहत्क्षेत्रके अनुसार कथन मिलता है।
तीसरे धातकी खण्ड अधिकारमें धातकी खण्ड द्वीपका विस्तार, परिषि, इष्वाकार पर्वत, मेरु पर्वत, भरतादिक क्षेत्रोंका तथा हिमवदादि पर्वतोंका आकार विस्तारादि, तथा चन्द्र सूर्य वगैरहकी संख्या आदिका कथन है।
तिलोयपण्णत्तिमें (४-२५७८) मेरुका विस्तार तल भागमें दस हजार योजन और भूतल पर ९४०० योजन बतलाया है । आगे (गा० २५८१) लिखा है कि कुछ आचार्य मेरुके तल विस्तारको नौ हजार पाँच सौ योजन मानते हैं। तत्त्वार्थ वार्तिक (पृ० १९५) में मेरुका मूल में विस्तार ९५०० और भूतल पर ९४०० बतलाया है । वृहत् क्षेत्र समासमें (गा० ३-५८) भी उतना बतलाया है। जो ति० प० के मतान्तरके अनुसार है। दोनों ग्रन्थोंमें मेरुकी हानि वृद्धि निकालनेके लिये जो गणित सूत्र दिया है वह पूर्ववत् प्रायः समान ही है यथा
जत्थिच्छसि विक्कभं मंदरसिहराहि उच्चइत्ताणं । तं दसहि भइय ल द्धं सहस्स सहियं तु विल्कभं ॥५९॥-व०क्षे०स०३ । जत्थिच्छसि विक्खंभं खुल्लयमेरूण समवदिण्णाणं ।
दसभजिदे जं लद्धं एक्क सहस्सेण संमिलिदं ॥२५८२॥-ति०प० ४। चौथे अधिकारमें कालोद समुद्रके विस्तार, परिधि, द्वीप, चन्द्र सूर्य आदि की संख्या, आदिका कथन है।
तिलोयपण्णत्तिमें कालोद समुद्र में भी लवण समुद्रकी तरह अन्तर्वीप और उनमें रहने वाले कुमनुष्योंका कथन है। किन्तु वृहत्क्षेत्र समासमें वह सब कथन नहीं है। इसका कारण यह है कि श्वेताम्वरमें कालोदधिमें ऐसे अन्तर्वीप नहीं माने गये हैं।
पाँचवे अधिकारमें पुष्कर द्वीप व उसके मध्यमें स्थित मानुषोत्तर पर्वतके विस्तारादिका, तथा इष्वाकार पर्वत, भरतादि क्षेत्र, हिमवदादि पर्वतोंके विस्तारादिका तथा चन्द्र सूर्यादिकी संख्या आदिका कथन है। वृहत्संग्रहणि'
जिन भद्रगणि क्षमाश्रमण विरचित वृहत्संग्रहणि भी लोकानुयोगका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस पर भी मलयगिरिकी संस्कृत टीका है। वृहत् क्षेत्र
१. मलयगिरिकी संस्कृत टीकाके साथ वृहत्संग्रहणीका प्रकाशन श्री जैन आत्मा
नन्द सभा भावनगरसे हुआ है । और उसका गुजराती अनुवाद श्री जैन धर्म प्रसारक सभा भावनगरसे प्रकाशित हुआ है ।