________________
४८ : जेनसाहित्यका इतिहास भी उसमें थीं। क्योंकि ति० ५० के प्रथम अधिकारमें जो परमाणु के स्वरूपको बतलाने वाली गाथाएँ पञ्चास्तिकायकी हैं उनका अनुवाद भी ह° पु० में वर्तमान है यथा
एक्करस वण्णगंधं दो पासा सद्दकारणमसइं । खंदंतरिदं दव्वं तं परमाणु भणंति बुधा ॥९७॥ अंतादिमज्झहीणं अपदेसं इंदिएहि ण हु गेज्झं । जं दव्वं अविभत्तं तं परमाणु कहति जिणाः ॥९८॥ ति० ५० १।
आदि मध्यान्तनिर्मुक्तं निविभागमतीन्द्रियम् । मूर्तमप्यप्रदेशं च परमाणु प्रचक्षते ॥३२॥ एकदकं रसं वर्ण गंधंस्पर्शावबाधको ।
दधन् स वर्ततेऽभेद्यः शब्दहेतुरशब्दकः ॥३३॥ ह० पु० ७ स० । इसीसे हरिवंश पुराणके कर्ताने हरिवंश पुराणके सर्ग ५ और ६वें अन्तमें 'प्रज्ञप्ति' नामसे तिलोयपण्णत्तिका ही उल्लेख किया प्रतीत होता है। यथा
प्रज्ञप्तिः श्रेणिक ज्ञाता द्वीपसागरगोचरा । प्रज्ञप्ति श्रुणु संक्षेपाज्योतिर्लोकोर्ध्वलोकयोः ॥७३४॥
-ह० पु० स०६। तथा छठे सर्गके अन्तमें कहा है
'ज्योतिर्लोकः प्रकटपटलस्वर्गमोक्षोललोकः । प्रज्ञप्युक्तं नरवर मया संग्रहात् क्षेत्रमेवम् ।'
-ह. पु० स० ६, १३९ । अतः यह निश्चित है कि ह° पु० के कर्ताके सामने ति० प० वर्तमान थी। और वह प्रायः उसी रूपमें वर्तमान थी, जिस रूपमें आज है। ह० पु० में वीरसेन स्वामीको भी स्मरण किया गया है जो उस धवलाटीकाके कर्ता हैं जिसमें उन्होंने लोकको चतुरस्र स्थापित किया है । और तदनुसार हरिवंश पुराणमें भी लोकको चतुरस्र माना है। वीरसेन स्वामीने भी धवलामें ति० १० का उल्लेख किया है। अतः तिलोयपण्णत्ति वीरसेन तथा उनके लघु समकालीन हरिवंश पुराणकारके समयमें वर्तमान थी। पश्चात् उसमें किसीने मिलावट अवश्य की है। किन्तु उक्त गाथाओंके नीचे दिये गये श्लोक बिल्कुल अनुवाद रूप है। आगे भी यही स्थिति है।
ति० प० (४।३०६) में चौरासी लाखसे गुणित महालता प्रमाणको 'सिरिकप्य' कहा है। इसका हिन्दी अनुवाद श्रीकल्प किया गया है। किन्तु