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२]
मरू-गूर्जर जैन कवि
पं० घणपालकृतः श्रीसत्यपुरमंडन-श्रीमहावीर उत्साहः समाप्तः। प्र. जैन-साहित्य संशोधक ख० ३ अं० ३ वि० तिलकमंजरी रचयिता, महाकवि शोभनमुनि के भ्राता।
बारहवीं शताब्दी
(२) वर्द्धमान सूरि
(२) वीर जिरणेसर पारणउ गा० ४३ आदि:- जस निसुणह एकग्ग मण, धम्मि धरेविण चित्तु ।
वीर जिणिदह पारणउ, कोसबियहि ज वित्त ॥१॥ अन्तः-वद्धमाण सूरिहिं पणय, हरिपत्थु थुइ वाय । __ भवि भवि तेम पसीय महु, जेम थुणतुह पाय ।।४३।।
श्रीवीरजिनेश्वरस्य पारणकं समाप्तमिति । [ सं० १२८६ लिखित प्रकरण पुस्तिका, ताडपत्रीय प्रति-मणिसागरसूरि संग्रह, कोटा, पाटण भं० सूची पृ० ४१२ ]
प्र० हिन्दी अनुशीलन वर्ष ३ अंक २ वि० वर्द्धमान सूरि ११-१२ वीं शताब्दी में दो हो गये है१ खरतर विरुद पाने वाले जिनेश्वरसूरि के गुरु वद्ध'मानसूरि समय सं० १०५५ से सं० १०८० । २ द्वितीय अभयदेवसूरि के शिष्य, समय सं० ११३० से ११७२
संभवतः उपर्युक्त रचना द्वितीय वर्द्धमानसूरि को होगी।
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