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जयानन्द
सोलहवीं सदी
[ १४३
सुदरसनु न (उ) नाम, मन वंछित पूरइ काम । प्रति सबल सील अभिराम, मनि ध्याई करउ प्रणाम ।।१०७ इति सुदर्शन च उपई।
अभय जैन ग्रन्थालय प्रति --- पत्र-३ । पंक्ति १६ से १६ । अक्षर-५० वि. दे. ज. गु. क भाग १ पृ ११६
भाग ३ पृ. ५४८ (रचनाकाल सं० १५६.७ से १५८४)
(१६१) विद्यारत्न (लावण्यरत्न शि०) (२२३) मंगल कलश रास-पद्य ३३९ ।
रचनाकाल सं० १५७३ (७, मि. व. ६
आदि-श्री जी राउलि जिन जपु, जग जीवन देव ।
समरयां काज सवे सरै, करई सुरासुर सेव ॥१ भारति प्रारति सह हर, चितवति मति अति (अंत)। जे दरिस देखइं डरी, दुरमति जाय दिगंत ।।२ चितत चितामणि सरिस, हरिस ही आ सु प्राण । श्री लावण्य रत्न पय प्रणमतां, पाम्यो अविरल वाण ॥३ जीव अनते अनंत सख, लाधा धर्म प्रमाण ।
मंगल कलस प्रति फलिउ, सबसे तास वखाण ॥६ अन्त-तपगछ गगन विभासन भाण, श्रीसोमसुदर सुरि प्रगट समान ।
जे गुरु (रा) ज चिहुं दिसि चडई, कुमति घूक अंध थई पड़इ । ३१
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