Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta, 
Publisher: Abhay Jain Granthalay

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Page 164
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अज्ञात सोलहवीं सदी श्रादि-नमो नमो तुम्ह चंडिका तुम्ह गुण कर न हुँति । एक चित्तइ जु समरतां, सुख संपत्ति पामंत्ति ॥ १ त जो माहिषासूर बद्ध, दैत्य ज मोडघा मान । जागु संभ नसंभुना, तई हरिया सवि खाण ॥२ पवाडा तुझ केतळा, कहितुं न लहुं पार | अर्जुन शिरि शरणि चडी तु भलभड़ी अपार || ३ छपन कोड़ि रूपज धर्या, चुसठि योगनि हुँति । तुल तणा गुण गावतां, मन हरषह पामंति ॥४ साहेली सरोवर तरणी, न लहई को तुझ पार । हि कवियण चंडां सुरगु तु अडवडीयां आधार ॥५ कवण गजुहु मानवी, मुझ बल ताहरु हुति । विश्व माय ताहरई बलि, राउ विक्रम वर्णवति ॥ ६ श्री गुरुनी सानिधि थकी, अविरल वाणी होइ । उवझाय भाव कहइ मानवी, संभलयो सहु कोइ ॥ ७ नयर उजेणी राजिउ, जाणु विक्रम राय कलियुग माहि अवतरि जिणि राख्यु जसवाय ॥८ चुपई - उजेणि नव जोवन वार मनुष्य तस्तु नहीं पार | व्यवहारी बसे श्रीवंत, प्रछइ दयामय जेह नु अंत ॥ ६ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ १४७ For Private and Personal Use Only ( ६७५ पद्यों में विक्रम के लीलावती से पाणिग्रहण, उसके पुत्र का प्रसंग वर्णित है ( | ) अन्त - दूहा - संत्रत पन (र) ब्यासीइ, (१५८२) तिथि वलि तेरसि होइ मास मागसिर जाणयो, वारह रवि दिन जोइ ।।७२ चडी तणइ पसाउ लहइ, चडिउ प्रबंध प्रमाणि 1

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