Book Title: Jain Maru Gurjar Kavi Aur Unki Rachnaye
Author(s): Agarchand Nahta,
Publisher: Abhay Jain Granthalay
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विनय
सोलहवीं सदी
[ १४९
एकदंत गजवदन पुणि विघन विसन सवि दूरि टालइ ।। लंबोदर नवनिधि करण सुरह वृद स्वछंदि पालइ । मूगा वाहणि अति पवर करि मोदक अभिराम ॥ सिरि विक्रम नरवइ तणा, कवि करिस्यु गुण ग्राम ।।२ सत साहस तनि प्रादरु, जिमि मनिवछित होइ ।
पंचदंड सिरि छत्र किय, ए उत्तिम परि जोइ ।।८ अन्त - संवत पनरह सइ त्रयासीयइ ए, चरित्र निसुणी हरसीयइ ।
साहसीक जे होइ निसंक, कायर कंपइ जे बलि रंक ।।६० श्री उवएस गणाचरि सूरि, चरण करण गुण किरण प्रपूर । रयणप्यह प्रभु गुण गण भूरि, तसु अनुक्रमि संपइ सिद्धि सूरि
तेहनइ वाचक हर्षसमुद्र, जसु जस उज्जल खीर समुद्र । तसु विनेय विनयांबुधि एह, रचिउ प्रबंध निरखि तिणि एह ।।१२ पंचदंड नाम सुचरित्र, देखी तेहनु अति विचित्र । तिणि विनोद चउपई रसाल, कीधी सुणतां सुफल विलास (विसाल)
॥६३ इति श्री विक्रमादित्य राजा पंचदंड चउपई समाप्त शुभं भवतु लेखन-१७ वी लि० (विनय समुद्र का अवड चौ० सं० १५६६ लिमरी
के साथ) प्रति-पत्र संख्या ३५ से ६३ गुटकाकार । पंक्ति १५ । अक्षर ३७ स्थान-मोतीचंदजी खजांची संग्रह ।
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